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इस कड़वी दवा का सेवन करेंगे अरुण यादव?

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निहितार्थ: अरुण यादव (Arun Yadav) ने बिलकुल सही फ़रमाया। खुद के लिए कहा की वह ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) नहीं हैं। वास्तव में इन दो राजनीतिज्ञों के बीच किसी तरह की समानता हो भी नहीं सकती। कुछ पुराने संयोग जरूर हैं। यादव और सिंधिया ने अपने-अपने पिता से राजनीति का ककहरा सीखा। दोनों एक समय कांग्रेस (Congress) में थे। उसी पार्टी से सांसद थे। यूपीए सरकार (UPA Government) में मंत्री बनाये गए। अब यादव विधायक भी नहीं हैं। सिंधिया एक बार फिर सांसद बन चुके हैं, केंद्र में मंत्री भी। यादव खुद के ही सियासी पुनर्वास के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं। सिंधिया केंद्रीय राजनीति में अपने पांव जमाने के बाद अब मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में अपने समर्थकों के लिए फील्डिंग में जुट गए हैं, जिसकी सफलता में संदेह नहीं है।

बहरहाल, यादव को लेकर चर्चा चली थी कि खंडवा लोकसभा क्षेत्र (Khandwa Lok Sabha Constituency) से टिकट नहीं मिला तो वह दल-बदल कर सकते हैं। इस पर उन्होंने खंडन की शैली में कहा कि वह सिंधिया नहीं हैं। दरअसल प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के रास्ते में कई कांटे बिछा दिए गए हैं। कहा जा रहा है कि दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) ने खंडवा से झूमा सोलंकी (jhuma solanki) को टिकट देने की दमदार सिफारिश कर दी है। ऐसा उस समय हुआ, जब अरुण खंडवा में अघोषित रूप से चुनावी तैयारियां शुरू कर चुके हैं। कमलनाथ (Kamal nath) तो पूरी तरह ‘मजे लेने वाले’ मूड में आ गए दिखते हैं। बेहद मासूम तरीके से कहते हैं, ‘अरुण यादव जी ने मुझसे कहा ही नहीं, वरना मैं तो तुरंत उनके नाम की घोषणा कर दूंगा।’ सन्देश साफ़ है कि टिकट चाहिए तो अकड़ छोड़कर पांव पकड़ने वाली मुद्रा तो अपनाना ही होगी। इसीलिये जब मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष (state congress president) कमलनाथ ने चुनावी तैयारियों पर बैठक बुलाई तो उसमें पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भोपाल में मौजूद होने के बावजूद नहीं पहुंचे। अब इस बढ़ती खाई के बीच खंडवा की जमीन किसके लिए सपाट मैदान बनकर सामने आएगी, यह देखना रोचक रहेगा।

फिर सिंधिया पर आएं। सिंधिया के मुकाबले यादव का परिवार राजनीतिक रणभूमि में काफी हद तक कमजोर हो चुका है। वर्ष 1984 के बाद से अरुण के पिता सुभाष यादव (Subhash Yadav) लगातार दो बार अपने गढ़ खरगोन की लोकसभा सीट से चुनाव हारे। सन 2007 के उपचुनाव में अरुण यादव ने जरूर फिर यह सीट अपने परिवार के खाते में डाली, लेकिन इसके आगे उनका जादू भी यहां नहीं चल सका। अब यह परिवार कसरावद की विधानसभा सीट में ही किसी तरह अपनी पकड़ बनाये हुए है। सयाने लोग कभी-कभी सेहत सुधारने के लिए हवा-पानी बदलते हैं। अरुण ने बीते विधानसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक तबीयत सुधारने की गरज से बुधनी का रुख किया। मतदाता ने उनकी सेहत और बिगाड़ दी। अब उनकी सारी उम्मीद खंडवा के उपचुनाव पर ही टिकी हुई है। इसके लिए पार्टी के प्रति निष्ठा जताना जरूरी था, तो वह सिंधिया वाली बात कह गए।

लेकिन सिंधिया से यादव का तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया जा सकता है। सिंधिया की दादी ने जिस समय दलगत निष्ठां बदली तो यह उनका असर था कि उन्होंने प्रदेश की हुकूमत को पलट कर रख दिया था। खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया जब दादी के नक़्शे-कदम पर चले तो राज्य से कांग्रेस की सरकार का बोरिया-बिस्तर बंध गया। यदि यादव आज कांग्रेस में बगावत (rebellion) के सुर बुलंद करते हैं, तो क्या गिनती के चार विधायक भी उनके साथ आएंगे? कतई नहीं। क्योंकि सुभाष यादव के जीवनकाल में ही उनका परिवार अपना राजनीतिक वजूद खोने लगा था। समर्थकों के तौर पर उनके किले में दिग्विजय सिंह ने जो सेंध लगाई थी, उसकी दरारें फटी बिंवाई की तरह आज भी इस परिवार की राजनीतिक रफ़्तार (political pace) में लड़खड़ाहट की वजह बन रही हैं।

हैरत की बात यह कि ऐसी कमजोरियां उस समय और अधिक बढ़ीं, जब इस परिवार को राजनीतिक ताकत की कमी नहीं थी। इस क्षरण वाले शुरूआती दौर में सुभाष यादव और फिर इस दौर के गति पकड़ने वाली कालखंड में खुद अरुण प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। कसरावद सीट से अरुण के भाई सचिन यादव पहले मंत्री और अब विधायक हैं। बावजूद इसके जो कुनबा खुद को नहीं थाम पा रहा हो, उससे सिंधिया जैसी ताकत की उम्मीद करना ही बेमानी है। इसीलिए आरंभ में ही कहा गया कि अरुण यादव ने बिलकुल सही फ़रमाया है। अब सवाल यह कि यादव इस सच के कड़वे घूंट को अपने राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए किसी दवाई के तरह ग्रहण करेंगे या अब भी वह आत्मुग्धता के मकड़जाल से बाहर नहीं आना चाहेंगे।

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