प्रद्युम्न सिंह तोमर (Pradhumn Singh Tomar) आज घायल हो गए। ग्वालियर (Gwalior) में एक मंच से नीचे उतरते समय यह हादसा हुआ। इसकी मुख्य वजह संतुलन का बिगड़ना रही। दस फुट चौड़े जिस मंच पर यह कार्यक्रम हो रहा था, उस पर करीब 25 लोग चढ़ गए। ये घटना एक सवाल के तौर पर कई पूरक सवाल खड़े कर रही है। मूल सवाल यह कि क्या यह वही भाजपा है, जो इस भीड़ और भाड़े वाली संस्कृति से दूर रहती आयी है?
जमावड़े के माध्यम से लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश भाजपा (BJP) के नेताओं की फितरत का शुरू से हिस्सा नहीं रहा। उस दौर के अनगिनत चश्मदीद आज भी मौजूद हैं, जिन्होंने पुराने भोपाल (Bhopal) के पीर गेट पर बने पार्टी के तत्कालीन दफ्तर में बिना किसी भीड़ वाले भाजपा नेताओं को देखा है। मगर बाद में यह बात दिखना कम हो गयी। अपने समय के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा (Prabhat Jha) ने एक व्यवस्था की थी। उन्होंने साफ़ कहा था कि कोई भी उनके सम्मान या स्वागत में होर्डिंग-बैनर न लगाए। झा भाजपा के संघर्ष से लेकर सफलता तक वाले दौर के सहभागी हैं। कहीं न कहीं उन्होंने महसूस किया था कि उनका दल होर्डिंग और बैनर के चलते ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ वाली छवि से दूर होती जा रही है। हालांकि न झा के कार्यकाल में और न ही उसके बाद भी उनकी इस कोशिश का कोई असर हुआ। आज कोई भी कार्यक्रम देख लीजिये। लगता ही नहीं कि यह सचमुच भाजपा से जुड़ा मामला है। ‘भैया’ ‘दादा’ और ‘दीदी’ या ‘बहन’ के स्वागत में अख़बार विज्ञापनों की अधिकता के शिकार हो जाते हैं। शहरों की सड़कों से लेकर गांव की पगडंडी तक विशुद्ध चमचत्व की प्रक्रिया किसी आपसी प्रतियोगिता की तरह चलने लगती है।
व्यवस्था में सुराख तलाश लेने वालों की तो किसी भी सेक्टर में कमी नहीं है। ऐसा ही यहां भी हुआ। पार्टी के कुछ सक्षम और वास्तविक शुभचिंतकों की इस भीड़वाद के प्रति नाराजगी से बचने का भी रास्ता निकाल लिया गया है। भाई लोग अपने जेबी संगठनों की मदद से राजनीति चमकाने में जुटे हुए हैं। उनके संरक्षण में चलने वाले संगठन आये दिन किसी बधाई या पर्व के जरिये शहर के मार्गों और अखबार के पृष्ठों पर अपने नेता की अघोषित पब्लिसिटी का घोषित काम कर गुजरते हैं।
सवाल यह नहीं है कि तोमर का मंच कैसे टूटा। बड़ा प्रश्न भाजपा के तई यह होना चाहिए कि वह अघोषित परंपरा ही क्यों टूटी, जिससे यह हादसा हुआ? मंत्री के साथ अपना गुदगुदाता हुआ चेहरा दिखाने की यह होड़ आखिर भाजपा तक कैसे पहुंच गयी? पोस्टर और होर्डिंग के माध्यम से खुद का आधार मजबूत और पार्टी की स्थिति को कमजोर बनाने वाले तत्वों का यह संक्रमण आखिर भाजपा तक कैसे पहुंच गया?
एक बात याद आती है। सुंदरलाल पटवा (Sundar Lal Patwa) तक छिंदवाड़ा (Chhindwara) से सांसद का चुनाव लड़ रहे थे। विजय के बाद विधानसभा में उनका विदाई भाषण हुआ। पटवा एक बात बताते हुए रो पड़े। वह यह कि छिंदवाड़ा में उन्हें संघ (RSS) से जुड़े एक बहुत बुजुर्ग सज्जन प्रचार करते मिले। वे स्वेच्छा से यह काम करने आये थे। जब पटवाजी ने उनसे रहने और खाने सहित अन्य जरूरतों का पूछा तो पता चला कि वह एक थैले में दो जोड़ी कपड़े, पांव में पुरानी चप्पल और भोजन के नाम पर केवल चना लेकर प्रचार का काम कर रहे थे। सच तो यह है कि इसी तरह की सादगी और संघर्ष ने भाजपा को आज वाली पार्टी बनाया है। केंद्र में और राज्यों में उसकी सत्ता कायम करवाई है। ये होर्डिंग छाप आसामी कभी भी छिंदवाड़ा जैसे असंख्य निष्ठावान भाजपाइयों के संघर्ष और समर्पण की बराबरी नहीं कर सकते। ये नेताओं के फैंस क्लब के ‘पॉलिटिकल इन्वेस्टर्स’ (Political Investors) केवल अपना कल सुरक्षित करने की जुगत में हैं, इन्हें पार्टी के भविष्य की मजबूती से कोई लेना-देना नहीं है। अखबारों में लाखों रुपये के विज्ञापन देकर अपने राजनीतिक आका की चापलूसी करने वाले लोग मूल भाजपाइयों के पांव की धूल तक नहीं कहे जा सकते हैं। ग्वालियर की तरह मंच पर उमड़ी भीड़ और नेताओं के साथ फोटो खिंचवाने की होड़ में जुटा समूह वह दीमक है, जो धीरे-धीरे भाजपा की मजबूत नींव को खोखला कर सकता है। और उस सब पर नेताओं की भाड़े वाली संस्कृति के प्रति बढ़ती आस्था इस दल के लिए भविष्य की बहुत काली तस्वीर बना रही है। ग्वालियर का आज वाला मंच उस प्रपंच की तरफ इशारा कर रहा है, जिसके चलते आज कांग्रेस (Congress) कहीं की नहीं रही और शायद कल भाजपा का नंबर आ जाए।