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न्याय के योद्धा: सर चेट्टूर शंकरन नायर की ऐतिहासिक भूमिका और विरासत

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अरुण कुमार डनायक।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गाथा में कई ऐसे नायक हुए हैं, जिनकी भूमिका भले ही उतनी चर्चित न हो, पर जिनका योगदान राष्ट्र की आत्मा में अमिट रूप से दर्ज है।

ऐसे ही महान व्यक्तित्व थे सर चेट्टूर शंकरन नायर — एक प्रखर वकील, न्यायप्रिय न्यायविद्, समाज सुधारक, और स्वतंत्रता संग्राम के वैचारिक योद्धा।

करन नायर का जन्म 11 जुलाई 1857 को केरल के पालक्काड ज़िले में हुआ। उनके व्यक्तित्व में शुरू से ही बौद्धिक गहराई, नैतिक संबल और सामाजिक न्याय के प्रति गहन प्रतिबद्धता थी। उन्होंने अपने जीवन के आरंभिक वर्षों में विधि और पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। वे मद्रास रिव्यू, मद्रास लॉ जनरल तथा मद्रास स्टैण्डर्ड जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशनों के संपादक रहे, जहाँ से उनके विचारों ने समाज को झकझोरा।

शंकरन नायर को मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया, जहाँ उन्होंने न्याय के प्रति अपने अडिग निष्ठा से ख्याति प्राप्त की। 1897 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और 1915 में वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् में शामिल होकर शिक्षा मंत्री का दायित्व निभाया। ब्रिटिश शासन का हिस्सा रहते हुए भी, उन्होंने कभी अपनी देशभक्ति या नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया। उनकी राष्ट्रवादी विचारधारा उदारवादी और सुधारवादी थी।

6 फरवरी 1919 को केंद्रीय असेंबली में रोलेट एक्ट पर चर्चा के दौरान उन्होंने वायसराय कौंसिल के सदस्य होने के नाते इस काले कानून का समर्थन किया।

इस क़ानून ने नागरिकों के बचे खुचे अधिकार भी छीन लिए और ब्रिटिश हुकूमत को, बिना कारण बताये, बिना मुकदमा चलाये किसी भी भारतीय को जेल में बंद कर देने के अधिकार मिल गए ।

महात्मा गांधी के आह्वान पर देश भर में इसका विरोध शुरू हो गया| पंजाब में हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक  सैफ़ुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल के नेतृत्व में इसका सबसे तीव्र विरोध हुआ और 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग की नृशंस घटना घटी। इस वीभत्स नरसंहार और ब्रिटिश सरकार द्वारा जनरल डायर व लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकेल ओ डायर की रक्षा के प्रयासों से शंकरन नायर का अंतरात्मा विचलित हो उठी । उन्होंने जुलाई 1919 में वायसराय काउंसिल से इस्तीफा दे दिया और ब्रिटिश सरकार की खुलकर आलोचना शुरू कर दी।  समय समय पर गांधीजी भी उनके वक्तव्यों की ओर आकर्षित हुए ।

नायर ने  खेडा व चंपारण आन्दोलन को लेकर वक्तव्य दिए और तत्कालीन शासन प्रणाली को अत्याचारी  बताते हुए कांग्रेस के नेतृत्व में  शिक्षित भारतीयों के प्रयासों की सराहना की, जिसे  गांधीजी ने यंग इंडिया के अगस्त 1919 के अंकों में विस्तार से प्रकाशित किया ।

ब्रिटिश सरकार के साथ गतिरोध दूर करने के उद्देश्य से 1921 में महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा बुलाए गए ‘मालवीय  सम्मेलन’ में नायर  अध्यक्ष बनाए गए, लेकिन गांधीजी की कठोर शर्तों — जैसे जनरल डायर के खिलाफ कार्रवाई और असहयोगियों व  मुस्लिम नेताओं की रिहाई — से वे सहमत नहीं थे। अंततः उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया। और गांधीजी के अड़ियल रुख को लेकर कुछ अखबारों में लेख लिखे | गांधीजी ने उनके आरोपों का उत्तर यंग इंडिया में दिया और उनके त्यागपत्र को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि ‘यदि वे एक वर्ष पहले त्यागपत्र दे देते तो खलबली मच जाती , लोग उन्हें मनाने दौड़ पड़ते पर अब तो राष्ट्र स्वतंत्रता प्रिय हो गया है |’

 

हालाँकि शंकरन नायर राष्ट्रवादी थे, परंतु उनकी विचारधारा गांधीजी की तरह प्रतिकारमूलक नहीं थी। वे मिन्टो मार्ले के सुधार प्रस्तावों व संवैधानिक प्रक्रियाओं के जरिये भारतीयों की दशा सुधारने के पक्षधर थे | सर नायर ने गांधीजी की नीतियों की वैचारिक समीक्षा करते हुए Gandhi and Anarchy नामक पुस्तक लिखी, जिसमें  हिन्द स्वराज , असहयोग आंदोलन, एक वर्ष के अन्दर स्वराज के वादे और खिलाफत आन्दोलन का समर्थन व हिंसा में विश्वास रखने वाले मुसलमानों के साथ गांधीजी की मैत्रीपूर्ण नीतियों पर गंभीर प्रश्न उठाए। इस पुस्तक ने न केवल तीव्र बहस को जन्म दिया बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के भीतर मतभेदों की गहराई को भी उजागर किया।

शंकरन नायर ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के दोषियों को न्याय के कठघरे में लाने के लिए ब्रिटिश सरकार को कानूनी चुनौती दी। यद्यपि डायर को बचा लिया गया, फिर भी उनके साहसिक प्रयासों की गांधीजी ने स्वयं यंग इंडिया (12 जून 1924) में मुक्त कंठ से सराहना की।

24 अप्रैल 1934 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनका जीवन आज भी उन सभी के लिए प्रेरणा है जो अन्याय के विरुद्ध न्याय और नैतिकता के बल पर संघर्ष करना चाहते हैं। वे उन दुर्लभ नायकों में से एक थे जिन्होंने कलम और न्याय को हथियार बनाकर ब्रिटिश  साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डॉ. अंबेडकर जयंती के अवसर पर सर नायर को याद करते हुए  जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) के खिलाफ ब्रिटिश शासन को चुनौती देने और ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी से त्यागपत्र देकर अंग्रेजों के – खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए उनके साहस की सराहना की। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के आपसी मतभेदों का राजनीतिक लाभ उठाने से बचना चाहिए | नायर के वक्तव्यों व त्यागपत्र को  भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहासकारों ने उचित सम्मान दिया है | हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन के महान  नेतृत्वकर्ताओं में भले चाहे कितने भी वैचारिक  मतभेद रहें हों लेकिन सभी ने एक दूसरे की राष्ट्रभक्ति का  भरपूर सम्मान किया | अत: यह आवश्यक है कि स्वतंत्रचेता नायकों के योगदान का उपयोग समकालीन राजनीति में विभाजन की रेखाएँ खींचने के लिए न किया जाए।

फिल्म केसरी चैप्टर 2: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ जलियांवाला बाग में शंकरन नायर के जीवन और उनके अदम्य साहस के एक पक्ष  को चित्रित किया गया है। हालांकि रचनात्मक स्वतंत्रता के अंतर्गत इसमें कुछ कल्पनाएँ जोड़ी गई हैं, तथापि इतिहास जैसे संवेदनशील विषय पर कार्य करते समय तथ्यों की प्रमाणिकता हेतु व्यापक शोध  और संवेदनशीलता बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।

सर चेट्टूर शंकरन नायर एक ऐसे राष्ट्रवादी थे जो न तो भीड़ के पीछे चले, न ही सुविधाजनक चुप्पी साधी। उन्होंने अपने विवेक, न्यायबुद्धि और नैतिक शक्ति से साम्राज्यवादी व्यवस्था को चुनौती दी। उनका योगदान स्वतंत्र भारत की नींव में ईंट की तरह मौजूद है — दृढ़, मौन, पर अडिग।

( लेखक गांधी विचारों के अध्येता व समाजसेवी हैं )

 

 

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