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हिम्मत है तो लिखिए- पीछे से खुलने वाला पायजामा

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ये और इस जैसी कई बातें आसानी से गले नहीं उतरती हैं। खास तौर पर जो खाका पहनाकर उन्हें सामने लाया जाता है, वह कई सवाल उठा रहा है। बाबा रामदेव को ही लीजिए। उनके लिए अचानक, ‘रामदेव (Ramdev) बोलता है’ ‘सलवारधारी पाखंडी’ (Slwardhari hypocritical) आदि जिन तरीकों से बातें रखने की होड़ मची है, क्या इसे उचित कह सकते हैं? निश्चित ही चिकित्सा (Medical) की बहुत प्रचलित एलोपैथी पद्धति (Allopathy method) को लेकर रामदेव ने विवादित बात कही। उनसे सहमत होना मुश्किल हैं लेकिन सवाल तो हैं। कोई भी चिकित्सा पद्धति आखिर संपूर्ण तो है नहीं। लेकिन लोग उन पर टूट पड़े। ये हमले तब भी जारी हैं, जबकि योग गुरु ने अपने कहे पर खेद जताया और शब्द वापस ले लिए। लेकिन विरोधियों के हमले जारी हैं। उनका मन नहीं भर रहा। शायद वे अभी और नीचे जाकर रामदेव के लिए और भी अधिक घटिया शब्द इस्तेमाल करना चाह रहे हैं।

ऐसा क्यों? हम तब कहां थे, जब एलोपैथ के समर्थक खुलकर होमियोपैथी (Homeopathy) को ‘मीठी गोली वाली पद्धति’ कहकर उसका मजाक उड़ाते हैं? हमें तब क्यों निंदा के लिए सभ्य शब्द तक नहीं मिल पाते, जब योग को लेकर धार्मिक आधार पर अनर्गल बातें कही जाती हैं। जबकि इसी योग को कई अन्य देश अपने यहां स्वस्थ जीवन शैली (healthy lifestyle) की प्रक्रिया के रूप में अपना चुके हैं। और अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय दिवस के तौर पर भी दुनिया मना रही है। बाबा Ramdev और एलोपैथी को लेकर ताजा घटनाक्रम कई मानसिकताएं और पूर्वाग्रहों की तरफ संकेत देते हैं। मसलन, एक साहब ने फेसबुक पर लिखा कि रामदेव इस बात का संकेत हैं कि इस देश में आदमी भगवा पहनकर कुछ भी बक सकता है। इन सज्जन से पूछना चाहिए कि उनके पेट में मरोड़ रामदेव के द्वारा एलोपैथी का विरोध करने से उठ रही है या फिर यह किसी भगवाधारी के देश सहित दुनिया में लोकप्रिय हो जाने से उपजी खीझ का परिचायक है? भला इस विवाद में भगवा एलोपैथी और आयुर्वेद (Ayurveda) के विवाद में भगवा कहां से आ गया?





दरअसल ये लक्ष्य साधने वाली बात है। कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना वाली सोच है। रामदेव भारतीयता (Indianness) के समर्थक हैं। निरोग जीवन शैली के प्राचीन भारतीय तरीकों को उन्होंने नया जीवन दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि वे एक होशियार व्यवसायी हैं। तो इसमें बुरा कहा हैं। पहले उन्होंने सैंकड़ों योग शिविर लगाए। योग के प्रति लोगों को नए सिरे से जगाया। और जब एक टार्गेट सेट हो गया तो अपना व्यवसाय शुरू किया। आज उनका टर्न ओवर तारीफ के काबिल है। तो अब इसमें क्या दिक्कत है, जिसे पसंद आए वो इस्तेमाल करें जिसे नहीं आए, वो भूल जाए। कोई जोरजबरदस्ती का मामला तो है नहीं। ये रामदेव के प्रचार तंत्र (Publicity system) का ही नतीजा है जिनके चलते वो लौकी आज जरूरी सब्जियों में शामिल हो गयी है, जिसे इससे पहले तक बीमारों का भोजन बता कर हिकारत की नजरों से देखा जाता था। तो अब एलोपैथी (Allopathy) वाले विवाद में उनके इन सभी पहलुओं को भी भगवा की ही तरह निशाना बनाया जा रहा है। यदि इस पद्धति के लिए इतनी ही संवेदनशीलता (Sensitivity) है तो फिर ये हमले उन लोगों पर क्यों नहीं हुए, जो कोरोना (Corona) को किसी एक धार्मिक ग्रंथ (religious texts) से जोड़कर ये प्रचारित कर रहे थे कि उनके धर्म को मानने वालों को यह वायरस (Virus) छू भी नहीं सकता है। जो सोशल मीडिया (social media) पर अपने इन भावों का खुलकर प्रदर्शन करते थे। तब ऐसा क्यों नहीं हुआ कि आज के आग उगलने वालों में से कोई भी ‘सलवारधारी’ की तर्ज पर ‘पीछे से खुलने वाले पायजामे’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल करने की हिम्मत दिखा सका हो।

कई न्यूज चैनल पर हर शाम बाबा को बेइज्जत करने वाले कार्यक्रम धड़ल्ले से चल रहे हैं। अनेक अंग्रेजीदां या इस मानसिकता में पगे अखबार अपनी कलम और कागज से रामदेव को लज्जित करने का काम कर रहे हैं। कभी पतंजलि (Patanjali) के मीडिया से जुड़े प्रतिनिधि के दफ्तर में चले जाइये। रामदेव को कोसने वाले यही मीडिया संस्थान (media institute) उनके उत्पादों तथा गतिविधियों के विज्ञापन लेने के लिए वहां घुटने के बल खड़े दिख जाएंगे। और उस विज्ञापन में यदि रामदेव वाकई एलोपैथी या इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (Indian Medical Association) को कोस रहे हों, तब भी ये समूह उस विज्ञापन (advertisement) को लपक कर दिखा देंगे। यह फरेबी आचरण किसलिए? यदि आप बाबा के उत्पादों और तरीकों से इतने ही चिढ़ते हैं तो फिर उनके विज्ञापन भी क्यों लेना चाहिए। मगर ऐसा करने का साहस कोई नहीं दिखायेगा। और इसे ‘पापी पेट का सवाल’ नहीं, बल्कि ‘पापी नीयत का बवाल’ ही कहा जाना चाहिए।





दरअसल होता यह दिख रहा है कि रामदेव की आड़ में समूचे प्राचीन भारतीय चिकित्सा ज्ञान (Indian medical knowledge) को एलोपैथी के आगे निपट देहाती ठहराने की साजिश तेज कर दी गयी है। यदि सचमुच हमारी पारम्परिक पद्धतियां (Traditional methods) इतनी ही नाकारा हैं तो फिर क्यों कोरोना काल में यकायक आयुर्वेद और Homeopathy की दवाओं की बिक्री में भारी इजाफा हो गया है। जी हां, जो केंद्र सरकार बाबा रामदेव पर गुस्सा हो रही है, उसके मंत्री श्रीपाद नाइक ने इस साल जनवरी में खुद यह बात कही थी। उन्होंने बताया था कि Corona के चलते Ayurveda की दवाओं की बिक्री में 300 प्रतिशत वृद्धि हुई है और भारतीय काढ़े की कम से कम सौ देशों में जबरदस्त मांग हो रही है। निश्चित ही एलोपैथी ने Corona से हजारों लोगों की जान बचाई। एलोपैथी के डाक्टर्स ने जीजान लगा कर पीड़ितों की सेवा भी की और कईयों ने अपनी जान देकर भी अपने प्रोफेशन का मान रखा। लेकिन लोगों को इस वायरस की चपेट में ही न आने देने में आयुर्वेद सहित अन्य भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के योगदान को भी तो नकारा नहीं जा सकता है। वह पद्धतियां, जो यदि नहीं होतीं तो कोरोना आज देश में कई लाख लोगों की जान निश्चित रूप से ले चुका होता। लेकिन गलती शायद यह हो गयी कि भारत और भारतीयता की बात करने वाला एक भगवाधारी हिन्दू जो बाबा कहलाता है, एलोपैथी की निंदा कर बैठा और स्वयंभू किन्तु पूर्णत: संदिग्ध सेकुलर्स की फौज उसे पीछे हाथ धोकर पड़ गयी है।

जिस व्यक्ति के प्रयासों की बदौलत आज दुनिया बिसरा दिए गए भारतीय शब्दों ‘नेती’ ‘प्राणायाम’ ‘कुंजल’ ‘ध्यान’ ‘अनुलोम-विलोम’ जैसे शब्दों पर व्यावहारिक रूप से अमल कर रही है, उसी व्यक्ति को उसके ही देश में यूं लांछित किया जा रहा है। रामदेव के निंदकों को भी अभिव्यक्ति की ही उतनी ही आजादी है, जितनी आजादी के साथ इस योग गुरु (Yoga guru) ने एलोपैथी को लेकर अपने विचार व्यक्त किये थे। ये आजादी आज भी हम सभी के पास है। तो उठाइये पुराने अखबार। तलाश कीजिये नाम सहित शर्मनाक घटनाक्रम और आपत्तिजनक बयान (Offensive statement)। और फिर यदि कुछ हिम्मत हो तो ऐसे में से किसी भी एक के लिए ‘पीछे से खुलने वाला पायजामा’ लिखकर दिखा दीजिये। और यदि इतना साहस नहीं है तो कृपया शांत ही रहें। एजेंडा से भरी अशांति अब ऐसे मंसूबों को एक्सपोज करने लगी है।

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