कांग्रेस के शीर्ष परिवार के संभावनाओं से हीन राजनेता के लिए इसे नया विशेषण मानने में कोई बुराई नहीं है। मैं अब तक केवल इतना मानता था कि राहुल गांधी राजनीतिक रूप से दिमागी शून्यता के सबसे प्रबल उदाहरण हैं। अब इस राय में संशोधन करने का वक्त है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि जवाहरलाल नेहरू का यह पड़नाती, इंदिरा गांधी का यह पोता, राजीव गांधी का यह पुत्र और दासत्व में सुख का अनुभव करते असंख्य कांग्रेसियों की आशा/आस्था का यह केंद्र वस्तुत: चक्रीवानों का सम्राट है। विशुद्ध रूप से ऊपर का माला खाली है या फिर इस खाने में गौमाता के शरीर के पृष्ठभाग से निकला पदार्थ ही जमा हुआ है।
राहुल ने आज ट्विीटर पर कहा कि वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे संबंधित संगठनों को परिवार नहीं मानते हैं। इसकी वजह गिनाते हुए गांधी ने आरोप लगाए कि संघ में बुजुर्गों का सम्मान और महिलाओं का स्थान नहीं है। उन्होंने इस परिवार को करुणा और स्नेह से भी दूर बताया है। इस आधार पर राहुल ने संकल्प लिया कि अब वह संघ को कभी भी ‘परिवार’ नहीं कहेंगे। खैर ये राहुल गांधी की अपनी समझ और मर्जी है। संघ को लेकर यह कोई पहला आरोप नहीं लगा है। लेकिन राहुल के श्रीमुख से यह कथन उनकी बौद्धिक क्षमता के लिए ‘सिरफिरे’ वाला संबोधन इस्तेमाल करने की आजादी दे रहे हैं।
गांधी परिवार और खुद राहुल को लेकर भी कुछ चीजे याद करने लायक हैं। राहुल के दादा फिरोज गांधी की 58 साल की उम्र में मृत्यु हुई। यानी वे प्रोढ़ अवस्था में आकर इस फानी दुनिया से कूच किये। लेकिन क्या आज तक राहुल ने अपने दादा की जन्म या पुण्यतिथि पर उनका स्मरण किया है? क्या नेहरू और इंदिरा सहित राजीव के लिए गर्व भरे भाव से बोलने के बीच उन्होंने दिवंगत फिरोज गांधी का नाम भी लेने जितना सम्मान उनके लिए दिखाया है? और फिर बुजुर्गों के सम्मान की तो राहुल के परिवार में विशिष्ट शैली की परंपरा है। ज्यादा पुराना नहीं, अभी 7-8 साल पहले मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे, तब उनकी सरकार के एक फैसले को भरी पत्रकार वार्ता में फाड़कर रद्दी की टोकरी में डालने का कारनामा कांग्रेस के इस युवराज ने ही किया था। मनमोहन सिंह उस समय अमेरिका की यात्रा पर थे और राहुल ने केवल उनका व्यक्तिगत ही नहीं, एक तरह से भारत के प्रधानमंत्री का सरेआम अपमान किया था। अब राहुल को मनमोहन सिंह जी की तब की उम्र तो शायद याद होगी ही। उनके परनाना जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का कदम-कदम पर अपमान किया था।
दादी इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण सहित विरोधी दलों के कई बुजुर्ग नेताओं के खिलाफ इमरजेंसी में दमन की जो नीति अपनाई थी, उसका भी सम्मान से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। फिर एक समय आया, जब नाती भी नाना के कदमों पर चला। अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में राजीव गांधी ने राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह को कई बार अपमानजनक स्थिति में डाला। पार्टी के अति-वरिष्ठ बुजुर्गों में शामिल किये जाने वाले कमलापति त्रिपाठी अपनी अंतिम सांस तक राजीव को चिट्ठियां लिखकर कई मसलों पर चर्चा करना चाहते रहे, लेकिन राजीव उनके लिए समय निकालने की मुद्रा में ही नहीं आए। मां सोनिया गाँधी ने दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के पार्थिव शरीर को कांग्रेस मुख्यालय के भीतर तक लाने की इजाजत नहीं दी थी। अपने पिता की उम्र वाले एक दिग्गज को मरणोपरांत पूर्व प्रधानमंत्री और पूर्व कांग्रेसाध्यक्ष जैसा सम्मान तक नहीं दिया गया। ये सब कहानी नहीं है। इनमें से हरेक बात के साक्ष्य आज भी मौजूद हैं। जो बताते हैं कि किस तरह राहुल की पार्टी में बुजुर्गों के सम्मान की ‘अनूठी परिपाटी’ निभाई जाती है।
औरतों की चिंता करने वाले राहुल को तो शायद दिल्ली के कुख्यात नयना साहनी तंदूर काण्ड की भनक नहीं है। एक समय में मासूम बच्चे का हाथ थामकर अपनी दादी के घर से बेदखली की शिकार हुई एक विधवा की तकलीफ का भी गांधी को कोई भान नहीं होगा। मध्यप्रदेश की महिला आदिवासी नेता जमुना देवी के बारे में उनकी कोई जानकारी नहीं होगी, जिन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के लिए ‘मैं दिग्विजय के तंदूर में जल रही हूं’ वाली पीड़ा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति की थी। गांधी को तो उन हजारों महिलाओं का भी दर्द नहीं मालूम होगा, जिन्होंने 1984 के सिख-विरोधी दंगों में अपने परिवार के लोगों को हमेशा के लिए खो दिया। जिनके जख्मों पर मलहम लगाने की बजाय राहुल के पिता राजीव ने इसे ‘बड़ा पेड़ गिरने पर जमीन कांपने’ की शर्मनाक और कायराना संज्ञा के जरिये जस्टिफाई करने की कोशिश की थी। संघ में महिलाओं के न होने पर चिंता जताने वाले राहुल क्या इस बात की फिक्र कर पाएंगे कि कैसे उनकी ही पार्टी की एक मुखर और जिम्मेदार नेता प्रियंका चतुर्वेदी को गुस्से में दल छोड़ने का फैसला लेना पड़ा था। प्रियंका के साथ यूपी में कांग्रेस के ही लोगों ने बदसलूकी की। इस महिला नेता ने राहुल सहित उनकी मां और बहन प्रियंका वाड्रा से इसकी शिकायत की। लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं की गयी। नतीजा यह कि देश के राष्ट्रीय फलक पर छा चुकी चतुर्वेदी ने राजनीतिक लाभों से ज्यादा तवज्जो आत्म-सम्मान को दी और खुद को पार्टी से अलग कर लिया।
राहुल की कांग्रेस का करुणा और स्नेह वाला भाव भी विलक्षण वाली श्रेणी का है। कश्मीर में सैंकड़ों कश्मीरी पंडितों की हत्या से आंखें मूंदकर उनकी पार्टी ने आतंकवादियों और अलगाववादियों के प्रति अपने स्नेह का परिचय दिया था। पंजाब में अकाली दल के खिलाफ भिंडरावाले एंड कंपनी को प्रश्रय देकर इसी दल ने कालांतर में आतंकवाद के प्रति करुणा वाले भाव का दोष पाया था। करुणा और स्नेह ऐसा कि आपातकाल के नाम पर सारे देश को दमन की भट्टी में झुलसने के लिए झोंक दिया गया था। इतनी करुणा कि संजय गांधी के इशारे पर हजारों कुंवारों की भी जबरिया नसबंदी कर दी गयी थी। नि:संदेह, वे कांग्रेसी भी करुणा के अवतार ही हैं, जिन्होंने राहुल के अध्यक्ष रहते हुए केरल में बीच सड़क पर गाय के बछड़े को काटकर उसके मांस की पार्टी की थी। राहुल की मां सोनिया ने भी बीते साल के दिल्ली दंगों के दौरान ‘घर से बाहर निकल कर लड़ने’ की बात कहकर करुणा और स्नेह का ही नया सबक सिखाया था। असंख्य किसानों की जमीन खाकर डकार तक न लेने वाले रोबर्ट वाड्रा की अर्द्धांगिनी प्रियंका वाड्रा भी अन्नदाता के प्रति स्नेह एवं करुणा की साक्षात प्रतिमूर्ति ही बन चुकी हैं।
अपनी पार्टी के भीतर की गन्दगी से बजबजाती ऐसी असलियतों को नजरंदाज कर राहुल ने संघ पर जो आरोप लगाये हैं, उसके पक्ष में एक भी दलील उन्होंने नहीं दी। क्योंकि न ऐसे मूर्खतापूर्ण कथनों के लिए कोई साक्ष्य या लॉजिक है और न ही इन बातों का कोई आधार है। आधार केवल इस बात का ही दिखता है कि बुद्धि के तौर पर राहुल निपट निराधार लोगों के सरगना बन चुके हैं।