निहितार्थ: हाय रे! अब तुम्हारा क्या होगा अटकलबाजों? शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) तो दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) से मिल लिए। दोनों के बीच लंबी बातचीत भी हो गयी। इधर तुम पिल पड़े थे बीते कई दिनों से। मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में नेतृत्व बदलवा रहे थे तुम। नए मुख्यमंत्रियों की फेहरिस्त लिए हुए तुम्हारे भाव वैसे ही दिखते थे, जैसे स्वर्ग में लोगों का लेखा-जोखा लेकर बैठे चित्रगुप्त (Chitragupt) जी के लिए कल्पना की जाती है। वाह! क्या कल्पनाओं के घोड़े हिनहिना रहे थे तुम्हारे प्रपंच और झूठ वाले अस्तबली दिमाग में। तुम तो आखेट करने पर उतारू थे। पता है ना कि कई बार शिकार के लिए किसी जानवर को चारा बनाना पड़ता है। तुम्हारा भी यही हिसाब था। एक आईएएस (IAS) अफसर को बलि का बकरा बनाकर अफवाहों के जंगल में उसे बांध दिया। कहा कि उस अफसर के द्वारा की गयी एक शिकायत के चलते ही शिवराज सिंह चौहान बतौर मुख्यमंत्री अंतिम सांसें गिन रहे हैं। फिर तुम दन्न से जा बैठे उस मचान पर, जिसे सोशल मीडिया (Social Media) कहते हैं। निठल्लों का सबसे बड़ा ऑनलाइन ठिकाना है ये चंडूखाने का यह आधुनिक रूप। वो तो न जाने किस विवशता के चलते तुम कुछ शर्म और लिहाज भी कर गए, वरना तो यह तय था कि तुम्हारी तरफ से राज्य के नए मंत्रिमंडल की भी घोषणा कर दी जाती।
अब तो यही सोच कर मन अकुला रहा है कि जब तक अगला ऐसा कोई और प्रपंच रचने का मौक़ा नहीं आता, तब तक तुम्हारी जमात का समय कैसे कट सकेगा। शिवराज सिंह चौहान बतौर मुख्यमंत्री पूरी तरह सुरक्षित थे। और आज की तारीख तक तो एक भी ऐसा ठोस आधार नहीं है, जिसके चलते उन्हें पद से हटाने की बात सोची भी जाए। वे किस्मत के धनी हैं। फिलहाल राजयोग के लिहाज से भी वो सुखद संयोगों से सुसज्जित हैं। ये चर्चा भी चली कि मुख्यमंत्री दिल्ली जा नहीं रहे, बल्कि उन्हें वहाँ तलब किया गया है। निःसंदेह, प्रधानमंत्री उन्हें तलब कर सकते हैं। मगर ये मामला किसी नाराजगी या अप्रत्याशित निर्णय से जुड़ा नहीं था। अटकलों के कोहराम के बीच शिवराज अविचलित थे। यदि उन्हें हटाए जाने की बात में ज़रा भी दम होता तो यह तय था कि चौहान कोरोना (Corona) से जूझने की बजाय सब छोड़-छाड़कर दिल्ली में डेरा जमा लेते। लेकिन क्योंकि ऐसा कुछ था ही नहीं, इसलिए ऐसा कुछ हुआ भी नहीं।
तो कयासवीरों के बीच इस समय कुछ फुरसत का समय है। उन्हें चाहिए कि अवकाश की इस अवधि का वे कुछ सदुपयोग करें। सोचें कि बगैर सोचे-समझे कुछ भी कह और लिखकर उन्होंने किस कदर अपनी विश्वसनीयता दांव पर लगा दी है। चिंतन करें कि कैसे अपनी डेढ़ अकल के चलते वे उस जमात के हाथों का खिलौना बन गए, जिस जमात का काम ही झूठ को फैलाना है। ‘राज्य में किसी भी समय बदला जा सकता है मुख्यमंत्री’ ये लिखना या कहना आपके उस भ्रम को जिन्दा रखता है कि आप बाकियों से हटकर सोचते हैं। बाकी है ये भ्रम ही।
भोपाल के एक पत्रकार अब जीवित नहीं रहे। अपनी पहचान बन जाने के बाद उन्होंने पूरी उम्र केवल दो किस्म की खबरें ही लिखीं। पहली, ‘विधानसभा सत्र से पहले होगा मंत्रिमंडल का विस्तार।’ दूसरी, ‘विधानसभा सत्र के बाद होगा मंत्रिमंडल का विस्तार।’ वे इसे ही पत्रकारिता के खोजी स्वरूप की श्रेष्ठता का पैमाना मानकर आत्मरति का सुख लेते रहे। अब आप सब अटकलबाजों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। सब जानते हैं कि आप अपनी मूर्खता के इस ताजा-तरीन प्रदर्शन के बाद भी सीख नहीं लेंगे। आप यह साबित करने में जुट जाएंगे कि बस एक या दो दिन बीतते ही शिवराज की छुट्टी होना तय है। आपकी ये सोच दरअसल वह तत्व है, जिसने सोशल मीडिया को भयावह तरीके से अविश्वसनीय प्लेटफॉर्म बना दिया है।
कयास लगाना मानव जीवन की आवश्यकता है। यह वही प्रक्रिया है, जिसने संसार में असंख्य महत्वपूर्ण नयी सोच को जन्म दिया है। लेकिन इस प्रक्रिया को बचकाने रूप से किसी दुराग्रह की हद तक अपनाना गलत है। जमीन के नीचे का पानी निकालने के लिए भी उस जगह ही खुदाई की जाती है, जहां पानी होने की संभावना हो। यही इंसानी सोच-समझ का सबूत है। वरना तो इंसान रेगिस्तान में भी जमीन खोदकर पानी की तलाश करने में लग जाता। इसी तरह से किसी मसले को चर्चा की शक्ल देने से पहले यह देख लेना चाहिए कि उस संबंध में हमारे विश्वास और जानकारी की जमीन कितनी मजबूत है। एक गांव में लोग स्थानीय मौसम केंद्र में गए। वे जानना चाहते थे कि उस साल ठंडक कैसी पड़ेगी। मौसम विज्ञानी बोला कि वह कुछ दिन बाद ही इसका उत्तर दे सकेगा। गांव वाले यह सोचकर ढेर सारी जलाऊ लकड़ी का इंतज़ाम करने लगे कि यदि उत्तर ज्यादा ठंडक वाला आया तो उन्हें अभी से बचाव के लिए तैयार रहना चाहिए। फिर एक दिन मौसम विज्ञानी बोला कि इस साल जबरदस्त ठंडक पड़ने वाली है। ग्रामीणों ने इस सूचना का स्रोत जानना चाहा तो विज्ञानी बोला, ‘मैं तो ये बात यह देखकर कह रहा हूं कि तुम लोग ढेर सारी लकड़ियां जमा कर रहे हो, तो जाहिर है कि ठंडक तेज पड़ने वाली होगी।’ बस यही है अटकलों के बाजार की गर्माहट का सच। वे बेबुनियाद चर्चाओं और तथ्यों पर सवार होती हैं। वे रेत का वो महल हैं, जो कभी भी पूरा नहीं बन सकता और निर्माण के बीच में ही सच की हवा के एक झोंके से वह धराशायी हो जाता है।