निहितार्थ: ये तो वही बात हुई। अभी जुल्फ खुली भी न थी कि पेंच आ गए। IAS अफसर लोकेश कुमार जांगिड़ (Lokesh Kumar Jangid) की बात हो रही है। कल तक वो एंग्री यंग मैन (angry young man) दिख रहे थे। व्यवस्था से परेशान घनघोर ईमानदार हीरो (honest hero) बनते जा रहे थे। अपने तेवर से उन्होंने पूरी प्रदेश सरकार (state government) को सांसत में डालने का बंदोबस्त कर दिया था। लोग उनकी तुलना अशोक खेमका (Ashok Khemka) से करने लगे थे। लेकिन अब मामला कुछ बिगड़ता दिख रहा है।कम से कम सच की तस्वीर वैसी तो नहीं नजर आ पा रही, जैसी कल तक जांगिड़ के द्वारा दिखाए जा रहा आईने में दिख रही थी। DIG इरशाद वली (irshad wali) निहायत ही सज्जन किस्म के पुलिस अफसर हैं। इसलिए आज वो भी अपना गुस्सा पीकर ही रह गए होंगे। जांगिड़ ने कल दावा किया था कि उन्हें जान से मारने की धमकी दी गयी है। वली इसी सिलसिले में कार्यवाही की गरज से इस अफसर के पास जानकारी लेने गए थे। पता चला कि जांगिड़ ने इस तथाकथित धमकी से जुड़े लगभग सभी सबूत खुद ही नष्ट कर दिए हैं। उन्होंने अपने पास से वह मोबाइल एप ‘सिग्नल (Signal)’ ही डिलीट कर दिया, जिसके मार्फ़त उन्होंने खुद को धमकी देने की बात कही थी।
वली का बतौर पुलिस अफसर लंबा अनुभव रहा है। एक से एक घाघ और बहानेबाज लोगों से उनका पाला पड़ा ही होगा। तो अब उनका तजुर्बा जांगिड़ की उक्त दलील को क्या मानता है, ये तो वली खुद ही जानें। लेकिन एक आम इंसान के अनुभव से भी देखें तो कहा जा सकता है कि जांगिड़ की बात कुछ हजम नहीं हो रही है। IAS बिरादरी के लोग यूं ही तीक्ष्ण बुद्धि वाले होते हैं। सतर्कता उनके व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा रहती है। इसलिए ये किस तरह मुमकिन है कि जांगिड़ अपनी जान पर आये खतरे से जुड़ा प्राथमिक सबूत ही delete कर देंगे? वे तो इस मामले में काफी सिद्धहस्त दिखते हैं। सोशल मीडिया (social media) पर खुद से जुड़ी तमाम किस्म की चैट उनके पास सुरक्षित है। फिर ऐसा क्या हुआ कि ‘Signal’ एप फुर्र से उनके पास से उड़ गया? दाल में कुछ तो काला है। या शायद उस दांव में कुछ झोलझाला है, जो कहा जा रहा है कि जांगिड़ ने बहुत सोच-समझकर चला है। इस दांव से जुड़ी पद्धति भले ही Cold Blooded कैटेगिरी की न हो, लेकिन उसे Manipulate कहने में कोई हिचक नहीं हो रही है।
अब जब संदेह की प्याज (onion) के छिलके उतर ही रहे हैं तो मामले के बाकी पहलुओं पर भी गौर कर ही लिया जाए। मामले में जिस तरह दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) दन्न से कूदे हैं, वो फूर्ती और फ़िक्र, दोनों देखते ही बनते हैं। ‘नजर मिली भी न थी, और उनको देख लिया।’ दिग्गी राजा ने अभी ठीक से अंगड़ाई ली भी न थी कि मामला व्हिसल ब्लोअर (whistle blower) वाली तबीयत का हो गया। और फिर यूं लगा गोया कि पूरे मुल्क का संविधान और लोकतंत्र के चारों खंभे गिरने वाले हों। लेकिन अब सब सामान्य होता जा रहा है। जो विवाद की लहर कहर की शक्ल में राज्य की समूची व्यवस्था को लीलने चली थी, वह लहर अब शांत भाव से किसी नाले में तब्दील होती दिख रही है। ऐसा इसलिए कि इस लहर में आगे बढ़ने लायक कोई तत्व ही नहीं था। अब जांगिड़ के बदले हुए तेवर उनके चेहरे में आनंद राय का अक्स दिखाने लगे हैं। वही राय, जो whistle blower बनकर छा गए थे और बाद में पता चला कि वह दिग्विजय सिंह के रिमोट से चल रहे थे। अंजाम यह हुआ कि व्यापमं मामले (vyapam case) में राय की सक्रियता ‘जितनी चाभी भरी राजा ने, उतना ही चले खिलौना’ तक ही सिमट कर रह गयी। ऐसा लगता है कि दिग्गी राजा ने अब उसी पुराने रिमोट को नयी फ्रीक्वेंसी (new frequency) पर सेट कर उससे जांगिड़ को ऑपरेट करने का काम शुरू किया है।
अब पता नहीं इरशाद वली की जांच किस किस तरह आगे बढ़ेगी। क्योंकि मामला तो मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त’ जैसा हो गया है। खुद जांगिड़ ने ही अपने पक्ष में फूल रहे विवाद वाले गुब्बारे की हवा निकाल दी है। लेकिन जांच तो कई और मामलों की भी अब जरूरी हो गयी है। चार साल में आठ तबादले इंक्वायरी से ज्यादा रिसर्च का विषय बन गए लगते हैं। यह तहकीकात अनिवार्य है कि आखिर क्यों लगभग हर अफसर ने अपने मातहत या सहयोगी के तौर पर जांगिड़ को नापसंद ही किया? किसलिए सीनियर्स ने उनके ट्रांसफर (transfer) के लिए ही सरकार से कहा? अब यह कहना तो गलत होगा कि एक अकेले जांगिड़ ही दूध के धुले हैं और बाकी के सारे अफसर भ्रष्ट। यह या तो व्यवहार का मामला है या फिर उस फितरत का, जो जांगिड़ की दिख रही है। इसलिए सरकार को चाहिए कि जांगिड़ के एक-एक आरोप सहित उनके पूरे कार्यकाल की भी बराबरी से जांच कराये। प्रकरण बहुत गंभीर है और इसमें एक भी गलत तथ्य को बख्शना नहीं चाहिए। फिलहाल एप डिलीट करने के चलते जांगिड़ संदेह के घेरे में हैं।