निहितार्थ: आईएएस अफसर लोकेश कुमार जांगिड़ (IAS Lokesh Kumar Jangid) फिलहाल बेख़ौफ़ दिख रहे हैं। अविचलित। उन्होंने मधुमक्खी के छत्ते में पत्थर मारने जैसा काम किया है। ऐसा करने के बाद भी उन्हें किसी डंक की फ़िक्र नहीं है। न ही वे शहद मिलने की उम्मीद में दिख रहे हैं। जाहिर है कि इस युवा अफसर को सिर पर कफ़न बांधकर निकले योद्धा के रूप में भी विजुअलाइज किया जा सकता है। उन्होंने सरकार से निवेदन किया है कि उन्हें महाराष्ट्र (Maharashtra) भेज दिया जाए। यानी जांगिड़ को मध्यप्रदेश की आबो-हवा रास नहीं आ रही है।
आखिर आबो-हवा ख़राब किस सन्दर्भ में दिखती है? आब यानी पानी। हवा का अर्थ तो खैर सभी जानते हैं। कहते हैं कि बार-बार हवा-पानी बदले तो उससे सेहत खराब होने का खतरा रहता है। तबीयत बिगड़े तो तमाम चीजों और बातों से मन उचट जाना स्वाभाविक रूप से हो जाता है। इसलिए चार साल की अवधि में कुल आठ बार इधर से उधर ‘पटके’ जा चुके जांगिड़ की तबीयत इस सबसे नासाज हो या न हो, लेकिन उसमें नाखुशी का भाव तो भर ही गया होगा। सो बहुत संभव है कि इसी सबके चलते उनका इस प्रदेश से मन भर गया है। वह उस राज्य में जाना चाहते हैं, जहां की सरकार पर अफसरों को चौथ वसूली के लिए मजबूर करने का संगीन आरोप लग चुका है। ऐसे में यह सवाल हमें डराता है कि क्या जांगिड़ को महाराष्ट्र के ऐसे हालात के बावजूद वह राज्य मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित लग रहा है?
जांगिड़ वाले इस एपिसोड से मध्यप्रदेश के पूरे सिस्टम पर सवालिया निशान उठ रहे हैं। हम सिहर चुके हैं एक ऑडियो क्लिप सुनकर। जिसमें बिहार का नर पिशाच मोहम्मद शाहबुद्दीन (Gangster Mohammad Shahbuddin) तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) को एक कलेक्टर को हटाने के लिए कह रहा है। अब ये सिहरन और बढ़ गयी है। ऐसा जांगिड़ के उस आरोप से हुआ है कि बड़वानी (Barwani) के कलेक्टर ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर मुख्यमंत्री के जरिये उन्हें हटवा दिया। मौजूदा सिस्टम बहुत कारगुजारियों वाला है। इसमें कलेक्टर का कैरेक्टर खालिस कलाकार जैसा कर दिया जाता है। अब पता नहीं कि बड़वानी कलेक्टर शिवराज सिंह वर्मा (IAS Shivraj Singh Verma) अभी अपने किरदार में यह बदलाव ला सके हैं या नहीं, मगर उन पर आरोप तो संजीदा किस्म के लगे हैं।
ब्यूरोक्रेसी की छीछालेदर करते-करते जांगिड़ यदि राज्य की शासन व्यवस्था को जिन्दा जलाये जाते लोगों वाली बात से जोड़ दें तो नौकरशाही और हुकूमत के रोशनदानों से आती रोशनी और साफ़ हवा के कम होने का घुटन भरा अहसास सताने लगा है।
बहुत कुछ सवाल उठ रहे हैं। आईएएस ऑफिसर्स एसोसिएशन (IAS Officers Association) जांगिड़ को क्यों खुलकर बोलने से रोकने की कोशिश करती दिखी? क्यों ऐसा हुआ कि जांगिड़ ‘रंग दे बसन्ती’ वाले इंकलाबी अंदाज में अपने कहे पर अडिग रहे और फिर उनकी ही बिरादरी के व्हाट्सएप ग्रुप से उन्हें बेदखल कर दिया गया? चलिए, मान लिया कि इन सवालों के उत्तर देने में सरकारी प्रक्रिया के पेंचदार हुनर काम आ जाएं। मगर यह सवाल क्या किसी साफ़-साफ़ उत्तर का हकदार नहीं है कि वो क्या वजहें रहीं, जिनसे एक अफसर को चार साल में आठ-आठ बार होल्डाल उठाकर एक से दूसरी जगह जाने के लिए विवश कर दिया गया? ऐसा क्यों लगता है कि इस विवाद के बाद देश की ब्यूरोक्रेसी (Bureaucracy) में कुछ गिने-चुने नाम अपने इर्द-गिर्द समर्थन वाली आवाजें मजबूत होने के आश्वासन से घिर गए होंगे? इस पूरी घमासान का एक-एक सच सामने लाया जाना बहुत जरूरी है।