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नई जिम्मेदारी में पुरानी गलतियां कैसे छोड़ पाएंगे राहुल?

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प्रकाश भटनागर

बीस साल के अपने राजनीतिक कैरियर में यह दूसरा मौका है जब राहुल गांधी एक महत्वपूर्ण जवाबदारी संभालने जा रहे हंै। दूसरी बार भी राहुल ने शुरूआती असमंजस के बाद ही फैसला लिया और पहली बार भी बड़ी जिम्मेदारी लेने को वे एकदम तैयार नहीं हुए थे। पहला मौका था उनके कांग्रेसाध्यक्ष बनने का। दूसरा अब है नेता विपक्ष बनने का। राहुल अब कांग्रेसाध्यक्ष के पद से भी ज्यादा बड़े जिम्मेदार पद पर हैं। यह जिम्मेदारी इसलिए और ज्यादा है कि वे चुनाव पूर्व बने एक ऐसे गठबंधन के नेता भी होंगे, जिसके लोकसभा में 236 सदस्य हैं। कांग्रेस इसका सबसे बड़ा दल है। गठबंधन में उससे कोई आधा भी नहीं है। बावजूद इसके कांग्रेस को अपने गठबंधन साथियों के विरोधाभासी दबाव में रहना होगा। लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के विरोधाभास सामने आ भी गए हैं। 2004 से संसदीय राजनीति में आए राहुल कांग्रेस गठबंधन सरकार के दस सालों में किसी भी पद को लेने से बचते रहे। और कांग्रेस जब सत्ता से बाहर हुई तो दस साल बाद संसद में यह मौका आया है जब उसे नेता विपक्ष की जवाबदारी मिली है। इस बार राहुल ने अपने संकोच तोड़े हैं।

दस साल के अंतराल के बाद इस बार भारतीय संसद के निचले सदन का परिदृश्य काफी हद तक बदला हुआ दिखाई देना तय है। 2014 के बाद अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विरोधी दल के नेता के रूप में उस व्यक्ति से चुनौती मिलने जा रही है, जो कम से कम मोदी के खिलाफ लड़ने से कभी थका नहीं है। उसके तेवर लगातार तीखे हुए हैं। बात यह भी है कि कांग्रेस के घनघोर रूप से बुजुर्ग की श्रेणी में पहुंच चुके नेताओं के संदर्भ में अब युवा संबोधन के फ्रेम में फिट बैठने वाले राहुल आक्रामक तेवर के मामले में सप्रयास ज्यादा मुखर हो रहे हैं। कम से कम ऐसे किसी भी प्रतिद्वंदी के लिए गांधी तब तक समर्पण की मुद्रा में नहीं आते हैं, जब तक कि मामला अगले के भारी पड़ जाने वाला न हो जाए।

राजनीति में अजातशत्रु कोई भी नहीं होता। मोदी भी नहीं हैं। लेकिन वह पहले मल्लिकार्जुन खरगे और फिर अधीर रंजन चौधरी के रूप में लोकसभा में कांग्रेस के ध्वजवाहकों को काफी हद तक ‘नरम’ करने में सफल दिखे। ये दोनों कांग्रेस संसदीय दल के नेता थे लेकिन नेता विपक्ष नहीं। राहुल की बात अलग है, वे कांग्रेस संसदीय दल के नेता के अलावा नेता विपक्ष के संवैधानिक पद पर भी होंगे। गांधी ने भले ही किसी समय सदन में मोदी के गले लगने के बाद आंख मारते हुए अपने अपरिपक्व व्यवहार का परिचय दिया था, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि वह इसी सदन में मोदी के गले किसी मुसीबत की तरह पड़ने जा रहे हैं। अब घटनाक्रम आंख चलाने नहीं, बल्कि पूरी ताकत के साथ आंख दिखाने वाले हो सकते हैं। आखिर मामला एक दशक पुरानी सियासी दुश्मनी का जो ठहरा। जिसमें अब तक लगभग हर मौके पर मोदी भारी पड़े और उन्होंने सोनिया गांधी तथा राहुल की आड़ में कांग्रेस को ‘कुचल डालने’ वाले तेवर दिखाने में कभी कोई कसर नहीं उठा रखी है। ऐसे घटनाक्रमों की अनंत कसक से जूझ रहे राहुल नेता प्रतिपक्ष के तौर पर निश्चित ही मोदी के लिए बड़ी चुनौती बनने के लिए व्याकुल हो रहे होंगे।

इस मामले के और भी पक्ष हैं। हालिया हुए आम चुनावों में कांग्रेस के उम्मीद के सर्वथा विरुद्ध अच्छे प्रदर्शन का श्रेय गांधी परिवार को ही दिया जाएगा। न तो मल्लिकार्जुन खरगे की कोई मास अपील है और न ही उनके साथ के किसी अन्य बड़े नेता में यह सामर्थ्य दिखा कि वह अपनी दम पर कांग्रेस को उल्लेखनीय तरीके से राजनीतिक लाभ पहुंचा सके। ऐसे में अब राहुल के लिए एक बड़ा अवसर और भी है। वह यह कि सदन में अपने प्रदर्शन से वह कांग्रेस के लोकसभा चुनाव से जुड़े जोश को बढ़ा सकें। गांधी के पास इसके लिए आवश्यक सामर्थ्य एवं समर्थन का कोई अभाव भी नहीं है। इसलिए अब उनके सामने संभावनाओं का अनंत आकाश और खुला मैदान, दोनों मौजूद हैं कि वह स्वयं को विपक्ष का एक तगड़ा नेता और मोदी के लिए सशक्त चुनौती के रूप में स्थापित कर सकें। नेशनल हेराल्ड जैसे मामले को छोड़ दें, तो राहुल के पक्ष में यह बात भी जाती है कि अपनी पार्टी सहित शेष विपक्षी दलों के कई दिग्गजों से सर्वथा विपरीत उन पर कोई बड़ा दाग नहीं है।

एक स्टैंड अप कॉमेडियन अब अतीत की गर्त में समा चुके हैं। फिर भी उनकी याद आ गई। उनका एक चरित्र लोटपोट कर देता था। उस चरित्र की एक ही खराब आदत है। वह यह कि यदि कोई उसकी नाक पर टिप्पणी करे तो वह अपनी तमाम समझदारी वाली बातों को छोड़कर तुरंत ही अनर्गल वार्तालाप करने लगता है। इसके चलते यह होता है कि किसी भी चर्चा के आरंभ में वह अत्यंत विद्वान दिखता है, लेकिन नाक की बात आते ही उसका व्यवहार उसके सारे किए-धरे पर पानी फेर देता है। अब तक हुआ यही है कि इधर राहुल की नाक पर मक्खी बैठी और उधर वह कोई न कोई ऐसी बात कर/कह गुजरते हैं, जो उनकी गंभीरता को समाप्त कर देती है। उम्मीद है कि गांधी नई जिम्मेदारी के साथ अपनी इस पुरानी गलती से सबक लेकर आगे बढ़ेंगे।

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