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डॉ. यादव के मंत्रिमंडल में नामदार नहीं, केवल कामदारों की जरूरत

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संदेश साफ है, जिसमें अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। मध्यप्रदेश में अपने प्रभावी सियासी सफर के दीर्घकालीन स्वरूप की सुनिश्चितता के लिए भारतीय जनता पार्टी परंपरागत आग्रह और टोटकों का अतिक्रमण कर चुकी है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के मंत्रिमंडल में विभागों का बंटवारा इसकी एक और पुख्ता मिसाल है। इस प्रक्रिया ने बता दिया है कि मंत्रिमंडल में नाम की बजाय काम पर ही जोर रहेगा। ‘नाम’ की परिधि में यदि दिग्गज मंत्री हैं तो दमदार विभाग भी इसी श्रेणी में ला दिए गए हैं।

कम से कम भाजपा के स्तर पर फिलहाल वह परिपाटी रोक दी गई है, जिसमें भारी-भरकम चेहरों को स्वाभाविक रूप से शक्तिशाली महकमों का हकदार माना जाता रहा है। यहां किसी का नाम लेना उचित नहीं होगा, लेकिन जिम्मेदारी का वितरण यही कहा रहा है कि कई नामदारों को अब स्वयं को कामदार साबित करने की चुनौती से जूझना होगा।

यूं तो ऐसा होने की शुरुआत उसी समय हो गई थी, जब केंद्रीय राजनीति के दैदीप्यमान चेहरों की बजाय राज्य स्तर के नेताओं, जगदीश देवड़ा और राजेंद्र शुक्ल को उप मुख्यमंत्री बनाया गया। अब महकमों के आवंटन में भी यह दिख रहा है कि सरकार का फोकस कद के अनुरूप पद (विभाग) देने की बजाय इस बात पर है कि किस तरह, किन लोगों से उन क्षेत्रों में भी काम लिया जा सकता है, जो प्रायः ‘शाकाहारी’ प्रकृति के माने जाते रहे हैं, लेकिन जिनमें अपने दीर्घ राजनीतिक अनुभव का लाभ लेकर उल्लेखनीय तथा सरकार सहित प्रदेश के हित में और भी अधिक उपलब्धि हासिल की जा सकती हैं।

डॉ. मोहन यादव के लिए बड़ा जोखिम है। गृह विभाग उनके पास ही रहेगा। यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है कि बेहद लोकप्रिय और कालांतर में चुनौती-विहीन साबित हुए शिवराज सिंह चौहान तक इस महकमे को संभालने से बचते रहे। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने यह विभाग खुद ही संभाला है और उनके इस निर्णय को राज्य में कठोर कानून-व्यवस्था से सीधे जोड़कर देखा जाता है। अनेक अपवादों के बावजूद मध्यप्रदेश ने शांति के टापू वाली अपनी छवि को कायम तो रखा है, लेकिन इसमें सुधार की गुंजाइशों को आगे बढ़ाने के लिहाज से गृह विभाग का मुख्यमंत्री के पास ही रहना बड़ा संकेत माना जा रहा है। यूं नहीं कि शेष मंत्रियों में से किसी के भी पास इस जिम्मेदारी को संभालने का माद्दा नहीं है, लेकिन यह जरूर है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री पद के रूप में डॉ. यादव पर जो विश्वास जताया है, उसे कायम रखने के लिए ऐसा किया जाना बहुत जरूरी हो गया था।

निश्चित ही राजनीति और काज-नीति, दोनों ही अनंत अनिश्चितताओं तथा संभावनाओं वाले खेल हैं। इसलिए कोई हैरत नहीं होना चाहिए, यदि आने वाले समय में इस जमावट में कुछ बदलाव होते दिख जाएं। वैसे ऐसा होने की कम संभावना है, क्योंकि इस बार मुख्यमंत्री के चयन से लेकर मंत्रिमंडल के गठन तक में पार्टी ने चौंकाने वाले सख्त निर्णयों की बात ही स्थापित की है। वैसे भी कम से कम लोकसभा चुनाव तक तो ऐसे बड़े परिवर्तन होने की कोई सूरत नहीं है और यह दिखाता है कि इस बार केंद्र और राज्य की डबल इंजन सरकार अपनी किसी भी उम्मीद को पटरी से उतरने की आशंका के समूल निर्मूलन वाली नीति के साथ आगे बढ़ रही है।

मंत्रिमंडल में खास चेहरों के बीच अहं के टकराव को थामने के लिए जिस तरह विभागों का संतुलन स्थापित किया गया है, वह भी उल्लेखनीय है। रही बात किसी किस्म के असंतोष की, तो इसका भी इंतजाम पहले ही कर दिया गया है। मंत्री पद और भारी-भरकम विभाग को अपनी जागीर मानने वाले कई चेहरे विधायक बनने के बाद भी डॉ. यादव की कैबिनेट में जगह नहीं बना सके हैं। अब भले ही एक आंकड़े के बाद मंत्रियों की संख्या बढ़ाने में संवैधानिक दिक्कत हो, लेकिन इस संख्या को कम करने पर किसी की रोक नहीं है और जिन तेवर के साथ डॉ. यादव की सरकार फैसले लेकर आगे बढ़ रही है, उनमें यह भी निहित है कि राज्य की वर्तमान व्यवस्था किसी को ढोने की विवशता से स्वयं को पूरी तरह मुक्त कर चुकी है और उसने यह संदेश भी दे दिया है कि पार्टी से बढ़कर कोई नहीं और खुद को दल से बड़ा मानने वालों के लिए कोई ठौर नहीं।

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