मध्यप्रदेश के नए मुख्यमंत्री के रूप में मोहन यादव का नाम निश्चित ही चौंकाने वाला फैसला है। लेकिन इस निर्णय में चौंका देने वाला तत्व बहुत अधिक दम नहीं रखता। वह इसलिए कि भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह पद के लिए खास कद की बजाय सुयोग्य के चयन पर ही विश्वास रखती है। इसीलिए ऐसा होता है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बना दिए जाते हैं और कभी सारे धुरंधरों के आगे मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान का चयन कर लिया गया था। यादव को जो थोड़ा-बहुत भी जानते हैं, वह इस बात से निश्चित ही सहमत होंगे कि वह अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के लिहाज से भाजपा और संघ के मापदंडों पर पूरी तरह खरे उतरते हैं।
पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए पूरी तरह समर्पित। मंत्री के रूप में निर्विवाद। लोगों से मित्रवत संबंध और बड़ों के आदर में कोई कमी नहीं। दरअसल यह भाजपा में ही संभव है कि अपेक्षाओं पर खरा उतरने वाले किसी साधारण कार्यकर्ता को भी यह पार्टी तराश् कर इस तरह आगे ले आती है। यह निर्णय उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब यह साफ है कि यादव को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे किसी विकल्प के अभाव जैसी कोई स्थिति नहीं थी। फिर भी उनका चयन किया जाना इस तथ्य को रेखांकित करता है कि यह दल गिने-चुने नामों वाली विवशता का अतिक्रमण कर नए प्रयोग का जोखिम उठाने की क्षमता है। इससे यह भी साफ है कि भाजपा का नेतृत्व क्षमताओं को पहचानकर अवसर देने के मामले में शेष दलों के मुकाबले बहुत आगे है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ के बाद मध्यप्रदेश में हुआ फैसला भाजपा की लंबी रणनीतिक संरचना की तरफ भी ध्यान आकर्षित करता है। विपक्ष से मिल रही भविष्य की चुनौतियों का कैसे जवाब देना है, यह भाजपा के नेतृत्व ने शायद तय कर लिया है। यह फैसला इस बात की तरफ भी इंगित करता है कि संगठन की शक्ति को भाजपा ने सदैव की तरह एक बार फिर महत्व दिया है। मालवा अंचल में पार्टी के मामूली कार्यकर्ता से लेकर प्रदेश के काबीना मंत्री के रूप में यादव ने संघ, विद्यार्थी परिषद से लेकर भाजपा संगठन के अनुशासन को शिरोधार्य कर उसकी मजबूती के लिए सदैव ही काम किए हैं।
उमा भारती से लेकर बाबूलाल गौर, शिवराज सिंह चौहान और अब यादव, ये चयन बताता है कि भाजपा भले ही कभी बनिए और ब्राह्मणों की पार्टी कहलाती हो, लेकिन समाज के कमजोर तबके को आदर और अवसर, दोनों प्रदान करने में उसने कभी भी चूक नहीं की है। जबकि यह उस प्रदेश की बात है, जहां लंबे समय तक शासन के बाद भी कांग्रेस ने वंचित तबके को मुख्यमंत्री पद तक लाने में कोई रुचि नहीं ली। एक तरह के विद्वेष से भरी इस विडंबना के चलते ही ऐसा भी हुआ कि कांग्रेस के भीतर आदिवासी मुख्यमंत्री की मुहिम ने जबरदस्त आपसी घमासान का रूप ले लिया, फिर भी बात केवल इतनी हुई कि शिवभानु सिंह सोलंकी से लेकर जमुना देवी, प्यारेलाल कंवर और सुभाष यादव को आगे बढ़ने के सीमित (‘प्रतिबंधित’कहना अधिक उचित होगा) अवसर प्रदान कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई। इस पूरे चुनाव में राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा जाति आधारित जनगणना की कसमे खाते रहे, लेकिन वहीं यह भी हुआ कि पार्टी की राज्य स्तरीय गतिविधियों और उनमें महत्व देने का क्रम कमलनाथ तथा दिग्विजय सिंह तक ही सिमट कर रह गया।
फिर यादव पर आएं। यह तय है कि नए मुख्यमंत्री के लिए सबसे बड़ी चुनौती खुद शिवराज सिंह चौहान ही साबित होंगे। इस बात को किसी नाराजगी या विद्रोह से जोड़कर न देखा जाए। यह चुनौती इस रूप में होगी कि अपने अब तक के कार्यकाल में शिवराज ने जो लोकप्रियता, सफलता और सक्रियता के कीर्तिमान स्थापित किए, उनसे आगे जाए बगैर यादव यह स्थापित नहीं कर सकेंगे कि पार्टी का उनके प्रति विश्वास एकदम सही था। शिवराज की लकीर इतनी बड़ी हो चुकी है कि विपक्ष तो दूर, खुद भाजपा के भीतर भी उस लकीर से आगे निकल पाने की क्षमता रखने वाला फिलहाल कोई चेहरा नजर नहीं आता है। तो जाहिर है कि यादव को इसके लिए बहुत अथिक परिश्रम करना होगा। फिलहाल तो दिमागी परिश्रम इस बात को लेकर भी चल रहा है कि अब शिवराज की अगली भूमिका क्या होगी? जाहिर है कि अपनी बहुत अलग और सशक्त छवि बना चुके शिवराज महज एक विधायक के रूप में नहीं दिखेंगे। तो फिर देखने वाली बात यह होगी कि चौहान की क्षमताओं का पार्टी कहां और किस रूप में इस्तेमाल करेगी? वो कहा गया है ना कि ‘सितारों से आगे जहाँ और भी है’ तो कोई बड़ी बात नहीं कि पार्टी ने शिवराज के लिए भी उनके मुफीद किसी बहुत ही चौंकाने वाले निर्णय का बंदोबस्त कर लिया हो। क्योंकि यह वह पार्टी है, जो होनहार का तारणहार सिद्ध होने में कभी भी चूक नहीं करती है।