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किसान संगठनों का विरोध और शिवराज की चुनौतियां…

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प्रकाश भटनागर

संयुक्त किसान मोर्चा शिवराज सिंह चौहान के कृषि और किसान कल्याण मंत्री बनने का विरोध कर रहा है। इस विरोध का कारण 2017 में मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में हुए गोलीकांड को बताया जा रहा है। अब विरोध करने वाले ये नहीं जानते हंै कि उस आंदोलन की शुरूआत किसानों के नाम पर हुई थी लेकिन आखिर में वो केवल पाटीदार आंदोलन होकर रह गया था। इस आराजक आंदोलन में जिन छह किसानों की मौत हुई थी, कमोवेश वे उनमें भी पाटीदार ज्यादा थे और गोलीकांड आंदोलन के हिसंक स्वरूप के कारण हुआ था। बावजूद इसके मुख्यमंत्री रहते हुए शिवराज ने तब बिना देर किए मृतक किसानों के परिवारों को एक करोड़ रूपए की आर्थिक सहायता स्वीकृत की थी। वे तमाम मृतकों के परिवारों से मिलने उनके घर भी गए थे और उनके गुस्से को पूरी सहनशीलता से झेला भी था।

2018 के विधानसभा चुनाव का नतीजा तब मंदसौर जिले की सात विधानसभा सीटों में से छह पर भाजपा की जीत के साथ सामने आया था। जिस विधानसभा क्षेत्र में यह गोलीकांड हुआ था, उसमें भाजपा उम्मीदवार वर्तमान उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा पिछली बार के मुकाबले ज्यादा वोटों से चुनाव जीते थे। और भाजपा का जो एक मात्र उम्मीदवार चुनाव हारा था, वो पाटीदार समाज से था। और ऐसा भी शायद पहली बार हुआ था कि इंदौर और उज्जैन संभाग की साठ से ज्यादा विधानसभा सीटों में से एक भी पाटीदार उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया था। किसान जातियों में यह सबसे प्रभावशाली और समृद्ध समाज माना जाता है। जाहिर है बाकी पिछड़ी किसान जातियां भाजपा के साथ एक जूट हो गर्इं थी। यह सब बताने का मकसद इतना भर है कि शिवराज का किसान संगठनों के नाम पर जो विरोध सामने आया है वो भी शायद प्रायोजित ज्यादा है। शिवराज किसानों के प्रति जितने संवेदनशील साबित हुए हंै, उतना शायद कोई और दूसरा मुख्यमंत्री याद करना मुश्किल होगा। लेकिन अब केन्द्र सरकार में शिवराज के लिए यह जिम्मेदारी ज्यादा चुनौतियों के साथ सामने आने वाली है।

वीडियो गेम में मेरी कभी खास रुचि नहीं रही, लेकिन ऐसे एक खेल ने कभी मेरा ध्यान खींचा था। मारियो। वह चरित्र जिसे खेलने वाला एक के बाद एक पायदान पर आगे लेता जाता है। खेल की चुनौतियां दिखने में समान हैं, लेकिन वह हर चरण के बाद निरंतर जटिल होती जाती हैं और यदि मारियो उन्हें सफलता के साथ पार कर लें तो वह अपनी मंजिल पर पहुंच जाता था। इस वक्त मैं ऐसा ही कुछ शिवराज सिंह चौहान के लिए महसूस कर रहा हूं। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री को अब नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में कृषि विभाग का जिम्मा दिया गया है। शिवराज किसान के पुत्र हैं। इसी परिवेश में जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा गुजार चुके हैं। खेती-किसानी से उनका उपलब्धि भरा सारोकार यह भी रहा कि मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने अपनी कुशल नीतियों और अच्छी नीयत से राज्य के अन्नदाता को भाजपा का अटूट वोटदाता बनाने में भी सफलता हासिल कर ली थी। इसके अनेक उदाहरण हैं। राज्य में प्याज की फसल खराब हुई तो चौहान की सरकार ने उसकी आठ रुपए में खरीद कर के किसानों को प्याज के आंसू रोने से बचा लिया। कर्ज के मर्ज से किसान बचा रहे, इसके लिए उन्होंने ब्याज मुक्त ऋण की योजना लागू की। देश के हृदय प्रदेश में किसानों के लिए सिचाई के रकबे में सात लाख से 45 लाख हेक्टेयर की वृद्धि कर शिवराज ने ही खेती-किसानी की मंद हो रही धड़कन को नई गति प्रदान की थी।

शिवराज की ऐसी सफलता और भी हैं और इसी संदर्भ में कहा जा सकता है कि अब उनके सामने चुनौतियां पहले से कहीं ज्यादा हैं। वह भी ऐसी कि फिलहाल उनका ओर-छोर नजर नहीं आता। अब बात एक राज्य की बजाय पूरे देश की है। राज्य भी वह, जहां किसान आमतौर पर प्रदेश सहित केंद्र में भाजपा की सरकार से नाराज नहीं रहा और देश वह, जहां आज पंजाब सहित हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अन्नदाता केंद्र की सरकार से खासा नाखुश है। मामला यहीं तक सिमट कर नहीं रह जाता। खेती अब लाभ का धंधा नहीं रही। फसल के उचित मूल्य सहित न्यूनतम समर्थन कीमत को लेकर भी इस वर्ग के बीच कमोबेश पूरे देश में निराशा का माहौल है। इसके चलते यह हो रहा है कि वर्तमान सरकार और किसानों के बीच कहीं घोषित तो कहीं मुखर रूप से खींचतान का वातावरण बना हुआ है।

इस सबके बीच कृषि मंत्री के रूप में शिवराज के लिए अपनी उपयोगिता साबित करना टेढ़ी खीर हो गया है। मध्यप्रदेश में उन्होंने खेत-खलिहान वालों को लेकर जो बड़े निर्णय लिए, वे मुख्यमंत्री के रूप में लिए जाना आसान था। पूरे देश के स्तर पर इस तरह के फैसले ले पाना निश्चित ही आसान नहीं रहेगा। खास तौर पर तब, जबकि विपक्ष के कई दल किसानों के गुस्से को भुनाने की विधा में निपुण हो चुके हैं और बहुत बड़े पैमाने पर खुद किसान भी अपनी पीड़ा को सियासी रंग देने के अभ्यास में सिद्धहस्त हो गए हैं। मोदी के दूसरे कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना किसान आंदोलन इस तथ्य की पुष्टि करता है।

निश्चित ही मोदी सरकार ने इस दिशा में कई प्रयास किए हैं। छह हजार रुपए की किसान सम्मान निधि इसकी ही एक मिसाल है। लेकिन इस सबसे परे यह भी स्थापित तथ्य है कि किसान इस राशि को अपनी समस्याओं और आवश्यकताओं की तुलना में ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ बराबर महत्व ही दे पा रहा है। बदलती आवश्यकताओं के बीच इस तबके के बीच यह बात बैठ गई है कि अब मामला खेती से होने वाली आय के दोगुना होने से कम वाला नहीं ही रहा है। तो अब शिवराज क्या करेंगे? किस तरह से वह कुछ ऐसा संतुलन बनाएंगे कि किसानों सहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपेक्षाओं पर भी खरा उतर सकें? वैसे चौहान के अब तक के कामकाज को देखकर यह विश्वास किया जा सकता है कि वह इन हालात से सफलतापूर्वक निकल जाने में भी सक्षम हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शिवराज अतीत से सबक लेकर वर्तमान सुधारने में भी माहिर हैं।

वह जानते हैं कि वर्ष 2018 के राज्य के चुनाव में कांग्रेस ने किसानों को दस दिन में कर्ज माफ करने का वादा करके सत्ता हासिल कर ली थी। इससे सबक लेकर बाद में हुए 28 सीटों के विधानसभा उप चुनाव में शिवराज ने किसानों का इस तरह विश्वास जीता था कि इस वर्ग की बाहुलयता वाली लगभग हर सीट पर कांग्रेस हार गई थी। ऐसे में यह विश्वास के साथ सोचा जा सकता है कि मुख्यमंत्री के रूप में अपने अनुभव और एक सहृदय जननायक की छवि के भरोसे शिवराज केंद्रीय मंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी को लेकर भी तगड़ा होमवर्क करने में जुट गए होंगे। आखिर यह मारियो की निरंतर बढ़ती चुनौती जैसा मामला है और शिवराज ने अधिकांश अवसर पर चुनौतियों में ही अपनी सफलता का रास्ता तय किया है।

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