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कांग्रेस और वामपंथ, एक सिक्के के दो पहलू

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प्रकाश भटनागर

एक कहानी यूं तो मार्मिक अर्थ वाली है, लेकिन आज की बात के संदर्भ में उसे परिवर्तित नजरिए से भी समझा जा सकता है। एक अंधे को भीख मांगने के लिए रोज सड़क पार करना होती थी। उसे किसी बच्चे का सहारा मिला। अंधा रोज बच्चे के सिर पर हाथ रखता और दोनों सड़क पार कर लेते। एक दिन भिखारी की मौत हो गई तो वह बच्चा यह कहकर बिलख उठा कि अब उसे कौन सिर पर हाथ रखकर सड़क पार करवाया करेगा?

हो ऐसा ही रहा है। बात बिलखने की ही नहीं, विलाप करने वाली है। मामला कांग्रेस और कम्युनिस्टों का है। तो पहले बात समझ लें। केरल में वामपंथी सरकार के धुर वामपंथी मुख्यमंत्री पिनराई विजयन का आरोप है कि कांग्रेस नेता प्रियंका वाड्रा वायनाड सीट पर उपचुनाव में विवादित संगठन जमाते-इस्लामी की मदद ले रही हैं। विजयन ने इस के साथ ही यह भी याद दिलाया है कि इस संगठन ने जम्मू-कश्मीर में चुनाव प्रक्रिया का विरोध किया था। तो यही विलाप हंसने के लिहाज से भरपूर मसाला प्रदान कर रहा है। विजयन कांग्रेस के लिए जिस मार्ग पर चलने का आरोप लगा रहे हैं, वहां तक उनकी अपनी पार्टी ही तो इस दल को लेकर आई है।

देश की स्वतंत्रता के बाद से आज तक कांग्रेस खुद की विचारधारा के लिहाज से बेहद फटेहाल रही है। जवाहरलाल नेहरू के समय से लेकर अब तक वामपंथियों ने इस पार्टी की ऐसी वैचारिक बदहाली का जमकर फायदा उठाया। ऐसे अनेक लोग इस दल पर समय-समय पर हावी रहे, जिनकी जुबान पर भले ही कांग्रेस का मंत्रोच्चार होता हो, लेकिन उनके दिल की धड़कन ‘कॉमरेड’ और ‘लाल सलाम’ वाले तराने ही सुनाती है। ऐसा राजीव गांधी के जमाने तक होता रहा और अब राहुल राज में तो वामपंथियों ने कांग्रेस पर इस कदर कब्जा कर लिया है कि वर्तमान में कई बार इस पार्टी और वामपंथियों के बीच अंतर कर पाना भी मुश्किल जान पड़ता है।

असल में जिन वामपंथियों को कांग्रेसी सत्ता प्रतिष्ठान में मलाई खाने की आदत लग चुकी थी, वे पिछले दस सालों से लगभग तड़फड़ा रहे हंै। वामपंथियों को अब ये भी समझ में आ गया है कि कभी तीन राज्यों की सत्ता में रही उनकी पार्टियां अब केरल तक सिमट कर रह गई है। देश में उनकी स्वीकार्यता कभी रही नहीं। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों ने देश में उनकी उपस्थिति लगभग खत्म ही कर दी है। ट्रेड यूनियनों और उनकी हड़तालों का दौर देश में बीत चुका। इसलिए सत्ता तक उनकी पहुंच का रास्ता अब कांग्रेस के कंधों पर सवार होकर ही बन सकता है। लिहाजा वैचारिक और संगठन के तौर पर कंगाल हो चुकी कांग्रेस अब वामपंथियों के कब्जे में है। राहुल गांधी वही भाषा बोल रहे हैं जो उनके वामपंथी गुरू उन्हें सिखाते हैं।

तो अब यह थोड़ा मुश्किल है कि इन दो दलों में से किसे शुरू की कहानी का अंधा भिखारी और किसे नादान गरीब बच्चा कहा जाए। लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि अपने-अपने सियासी रास्ते तय करने के लिए कांग्रेस और वामपंथियों के बीच इस कहानी के इन दो चरित्रों जैसा तालमेल सामने दिख रहा है। वामपंथी केरल से बाहर अपना जनाधार बढ़ाने के लिए कांग्रेस का इस्तेमाल कर रहे हैं। कांग्रेस को भाजपा से मुकाबले के लिए इस पंथ के लोगों की आवश्यकता है। इसके लिए सिद्धांत-विहीन राजनीति ने उस समय गति पकड़ी, जब आंख मूंदकर मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को अपनाए रखा। बीच में कुछ समय के लिए जरूर राहुल गांधी के कोट के ऊपर लटकते तथाकथित जनेऊ के माध्यम से इस दल ने अपने दिल को बदलने का दिखावा किया, लेकिन वामपंथ ने जल्दी ही उस जनेऊ से निजात दिलाकर राहुल गांधी को जातिगत जनगणना में झोंककर बहुसंख्यक समुदाय में विभाजन वाली मानसिकता को लाल सलाम कहने के रास्ते पर खड़ा कर दिया। अब वाकई में जो कांग्रेसी हैं, वे भी समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर पचास साल की सत्ता में कांग्रेस ने जातिगत जनगणना पर विचार क्यों नहीं किया? राहुल गांधी से सोचने समझने की उम्मीद का तो सवाल ही नहीं उठता।

वायनाड को लेकर विजयन की कांग्रेस से क्या खुन्नस है, यह तो वे खुद ही जानते होंगे, लेकिन वाड्रा पर लगाए उनके आरोप ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वामपंथी विचारधारा किस कदर दोगलेपन की शिकार है। जमाते-इस्लामी को अचानक कोस रहे विजयन उसी विचारधारा में सरापा सने हुए हैं, जिसके पुरजोर समर्थकों ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने का विरोध किया। जिन्होंने कश्मीर जाकर अलगाववादी नेताओं के आगे सजदे किए। जो धर्म के विरोध की आड़ में केवल बहुसंख्यक समाज को निशाना बनाते हैं। आज यदि इन्हीं लोगों को जमाते-इस्लामी में कोई खराबी दिख रही है तो फिर इसे घोर स्वार्थ वाली सियासत से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता। उन कांग्रेसियों के लिए भी क्या कहा जा सकता है, जो सिर्फ इसलिए पार्टी में हाशिए पर हैं कि वो दिल से सच्चे कांग्रेसी हैं। और आज की कांग्रेस में मुख्य धारा का आनंद वो ले रहे हैं, जो वामपंथ को अपना मूल मंत्र मानकर चलते हैं। ऐसे हालात में समय आ गया है, जब दिवंगत देवकांत बरुआ को याद कर उनके एक कथन को थोड़ा परिवर्तित कर कह दें कि ‘ कांग्रेस ही वामपंथ है, वामपंथ ही कांग्रेस ।’

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