मामला शब्दों के साथ खेलने वाला है। लेकिन विषय राहुल गांधी से जुड़ा है, इसलिए इसे विशुद्ध रूप से मनोरंजन वाली श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी को जो लोग किसी समय अक्लमंद मानते थे, उनमें से अधिकांश अब इस बात से सहमत होंगे कि दरअसल मामला राहुल के मंद अक्ल होने का है। निश्चित ही अयोध्या में राम मंदिर के लोकार्पण कार्यक्रम में शामिल होना या न होना किसी के लिए भी निजी निर्णय वाले अधिकार का विषय है। लेकिन इस आयोजन से अपनी दूरी को लेकर राहुल ने जो दलील दी है, उसकी दाल कहीं से भी गलती नहीं दिखती है।
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा है कि यह आयोजन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वह कार्यक्रम है, जिसे चुनावी कलेवर दिया गया है। अब गांधी तो केवल वह देख और समझ पाते हैं, जो उन्हें दिखाया तथा समझाया जाता है। इसलिए यह उम्मीद राहुल की बुद्धिमत्ता के साथ ज्यादती होगी कि वह अपने इस बयान का मतलब भली-भांति समझते हैं। क्योंकि भावार्थ तो दूर, कांग्रेस नेता को यदि अपने कहे का शब्दार्थ भी समझ आता होता तो वह इस कथन से दिल और दिमाग के झरोखे खोलकर सच पर एक दृष्टि डाल लेते। यह देखते कि जिस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को वह किसी व्यक्ति या संगठन का आयोजन बता रहे हैं, उसे लेकर करोड़ों व्यक्तियों तथा असंख्य संगठनों के बीच किस तरह अपार श्रद्धा और समर्थन का वातावरण है।
मैं यह नहीं कहता कि फिलहाल सारी दुनिया राममय है, लेकिन यह तो हो ही चुका है कि 22 जनवरी को लेकर वह राममय दुनिया स्थापित हो चुकी है, जो त्रेता युग और कलियुग के बीच एक अद्भुत सेतु का काम कर रही है। अयोध्या जाने के लिए लोगों के बीच ऐसा उद्वेग है कि आयोजकों को उनसे फिलहाल वहां न आने की अपील करना पड़ रही है। वजह यह कि जिस संख्या में लोग इस शुभ अवसर के साक्षी बनना चाहते हैं, उस संख्या की उपस्थिति के लिहाज से अयोध्या नगरी या जिला तो दूर, शायद समूचा उत्तरप्रदेश छोटा पड़ जाएगा।
तो क्या यह चुनावी ईवेंट है? अगर अब तीन चार महीने बाद लोकसभा के चुनाव हैं तो बेशक ऐसा कहा जा सकता है। राम मंदिर को लेकर देश में सत्तारूढ़ भाजपा के रूख में कभी भी लोगों ने अस्पष्टता नहीं देखी है। यह वो राजनीतिक दल है जिसने राम मंदिर के निर्माण को अपने चुनावी अभियानों का हिस्सा बनाया है। इसलिए राम मंदिर का निर्माण भले ही एक ट्रस्ट कर रहा है लेकिन यदि भाजपा मंदिर निर्माण और रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा को एक बड़ा इवेंट बनाने में योगदान दे रही है तो इसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए? सीधा भले ही भाजपा का कोई लेना देना नहीं हो लेकिन जनता के बीच भाव स्पष्ट है। यदि अपार श्रद्धा वाले इस अपरंपार भाव को भी राहुल चुनाव से जोड़ रहे हैं तो उनकी यह सोच ‘शोचनीय’ दशा की प्रतीक ही कही जाएगी। यदि मामला खालिस चुनावी है तो फिर राहुल को तो यह सोचकर अपनी पार्टी के सियासी जीवन के लिये फातेहा पढ़ना शुरू कर देना चाहिए कि इस सियासी आयोजन को भी आम जनता ने स्व स्फूर्त तरीके से वह समर्थन दे दिया है, जो लोकसभा की 543 सीटों में से अधिकांश पर कांग्रेस सहित उसकी विचारधारा के समर्थक दलों के लिए ‘सूपड़ा साफ’ वाली स्थिति का पुख्ता संकेत दे रहा है।
यदि राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा मोदी और संघ का चुनावी आयोजन है, तो राहुल यह भी बता दें कि इसी मंदिर का विरोध और राम के अस्तित्व को नकारने के कांग्रेस पार्टी के काम क्या राजनीतिक और चुनावी कदम नहीं थे? यह सब और इसके साथ ही राम सेतु के ढाँचे को तोड़ने की वकालत करके क्या कांग्रेस ने अपनी तुष्टिकरण की राजनीति को खाद-पानी देने का प्रयास नहीं किया था? क्या ऐसा नहीं है कि तीन राज्यों में अपनी हालिया चुनावी हार के बाद कांग्रेस ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ के मामले में मुंह की खा चुकी है और इसलिए अल्पसंख्यकों को रिझाने के फेर में वह अयोध्या के आयोजन से मुंह चुरा रही है? इसीलिए तो ऐसा हो रहा है कि स्वयंभू दत्तात्रेय गोत्र के ब्राह्मण राहुल के कोट के ऊपर लटका कर दशार्या गया यज्ञोपवीत एक बार फिर गायब हो गया है और वह उन जयराम रमेश को गले लगा रहे हैं, जिन्होंने देश में मंदिरों के मुकाबले शौचालयों को अधिक पवित्र स्थान बताया है।
यूं भी विचारधारा के मामले में कांग्रेस की कमोबेश सदैव से स्थिति भानुमति का कुनबा जोड़ने जैसी ही रही है। जवाहरलाल नेहरू वामपंथी बुद्धि की आगे सदैव बौने रहे और आज हालत यह कि सोनिया से लेकर राहुल तक के असर से यह दल पूरी तरह वामपंथी सोच के आगे नतमस्तक हो चुका है। तब ही यह हो रहा है कि किसी समय नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार कार्यक्रम का विरोध किया था और आज कांग्रेस अयोध्या के आयोजन का बहिष्कार कर रही है। कांग्रेस के इस रुख के बीच यह भी याद रखा जाना चाहिए कि सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक का मामला अंतत: मुगल आक्रांताओं की करतूतों का जवाब देने से जुड़ा हुआ है। दोनों ही जगह देश के बहुसंख्यक वर्ग की भावनात्मक अस्मिता तथा एकता की जीत हुई है। क्या इस मसले पर कांग्रेस की रीति-नीति और सोच को स्पष्ट करने के लिए कुछ और कहने की जरूरत रह जाती है??