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मसखरों की मनोदशा और कांग्रेस की ‘राहु’ ल दशा

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प्रकाश भटनागर

‘एक सोच या सबूतों से हटकर असलियत देखना और मानना। ऐसा अक्सर मानसिक बीमारी की वजह से होता है।’ यह एक प्रतिष्ठित अस्पताल की भ्रम को लेकर की गई व्याख्या है। कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व जिस तरह से भारतीय संविधान की प्रति हाथ में लेकर उसकी रक्षा का दंभ भर रहा है, लगता ऐसा ही है कि वो इस अस्पताल की व्याख्या को ही जी रहा है। 24 जून को 18 वीं लोकसभा के पहले सत्र के पहले दिन कांग्रेसी अपने नेता राहुल गांधी के साथ संविधान की प्रति लेकर संसद में जब मौजूद थे तब उन्हें शायद याद नहीं आया कि 24 के बाद 25 जून भी आएगा। उनपचास साल पहले की वो तारीख जब राहुल गांधी की दादी ने देश के संविधान का गला घोटाने का दुस्साहस किया था। 25 जून, 1975। यह तारीख देश को हमेशा कांग्रेस की तानाशाही को याद दिलाती रहेगी। कांग्रेस की संविधान रक्षा का दंभ आज गंभीरता नहीं, एक हास्य उत्पन्न करता है। लोकसभा में कांग्रेस नेता संविधान की प्रति हाथ में लेकर शपथ लेते समय जब ‘जय हिन्द, जय संविधान’ का नारा बुलंद करते हंै तो इस नौटंकी की गंभीरता पर कौन यकीन करेगा?

देवेन वर्मा अपने समय में हिंदी सिनेमा के मशहूर हास्य अभिनेता थे। यह तब की बात है, जब फिल्मों में हास्य कलाकारों का एक अलग स्थान था। फिर यह चलन कम होने लगा। अभिनय से संन्यास लेने के बाद वर्मा ने एक साक्षात्कार में इस चलन में बदलाव की वजह बताई। उन्होंने कहा कि अब हीरो ही खुद कॉमेडियन का चरित्र भी निभाने लग गए हैं। इसलिए निमार्ताओं को फिल्म में अलग से हास्य अभिनेताओं की जरूरत नहीं रह गई है।

हमारे देश में राजनीति पर असंख्य फिल्में बनी हैं और राजनीतिक जगत से जुड़े कई घटनाक्रमों पर फिल्म का असर साफ देखा जा सकता है। यह घटनाक्रम भी मिलता-जुलता ही है। कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर दिग्गज और विद्वान श्रेणी के नेताओं की लंबी सूची है। इनमें से अधिकांश अपने काम एवं नाम के चलते सियासत सहित देश के सामजिक परिवेश पर भी सकारात्मक और विशेष असर डालने में सक्षम रहे। मामला किसी फिल्म के मुख्य नायक या नायिका जैसा ही रहा। हां, कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों में भी विदूषकों की कमी कभी भी नहीं रही। लेकिन अब से पहले तक ऐसे किसी भी दल में इस तरह के चरित्र कभी भी मुख्य पात्र वाली जगह नहीं पा सके। अब तस्वीर अलग दिख रही है। कांग्रेस में राहुल गांधी घोषित और अघोषित रूप से पार्टी के कर्ताधर्ता के रूप में जो अनेक प्रहसन गढ़ते चले आ रहे हैं, उन्हें देखकर यही समझ आता है कि देवेन वर्मा ने फिल्मों से जुड़े बदलाव पर जो कहा था, वह व्हाया गांधी अब राजनीति पर भी लागू हो चुका है।

राहुल गांधी की सियासत का एक विशिष्ट पक्ष यह है कि वह किसी एक बात का लंबे समय तक रट्टा मारने में माहिर हैं। तो राहुल की इस शैली में बीते कुछ समय से ‘संविधान की रक्षा’ वाला तत्व ‘लेटेस्ट फैशन’ की तरह हावी हो चुका है। जब राहुल संसद में संविधान की प्रति लेकर पहुंचे, तब उनके कहे और करे को समझने वालों के लिए इसमें नयापन या आश्चर्य वाली कोई बात नहीं थी। फिर भी आश्चर्य होता है। राहुल उस संविधान की दुहाई दे रहे हैं, जिसे कलंकित करने में उनकी पार्टी ने समय-समय पर कोई कसर नहीं छोड़ी। करेला और नीम चढ़ा वाला कसैला दुर्योग। 25 जून को राहुल एंड कंपनी संसद में संविधान की रक्षा की दुहाई देकर जब शपथ ले रहे थे, इसके ठीक 49 साल पहले राहुल की दादी इंदिरा गांधी ने देश को आपताकाल की बेड़ियों में जकड़ दिया था। उस दौर में इंदिरा जी और उनकी सलाहकार मंडली ने ही कौरवों की तरह देश के संविधान के चीर हरण की प्रक्रिया को पूरी निर्दयता और निर्लज्जता के साथ अंजाम दिया। संविधान में संशोधन कर न्यायपालिका से आपातकाल की समीक्षा का अधिकार छीन लिया गया।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था। इस संशोधन ने अदालत से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच करने का अधिकार ही छीन लिया। इस संशोधन के अनुसार प्रधानमंत्री के चुनाव की जांच सिर्फ संसद द्वारा गठित की गई समिति ही कर सकती थी। इतना ही नहीं, उस समय संविधान में संशोधन के प्रावधान के माध्यम से मौलिक अधिकारों की तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को वरीयता दी गयी। इस प्रावधान के कारण किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया जा सकता था। इस संशोधन से न्यायपालिका को पूरी तरह से कमजोर कर विधायिका को असीमित ताकत दे दी गई थी। इससे यह हुआ कि केंद्र सरकार किसी भी राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर कभी भी सैन्य या पुलिस बल भेज सकती थी दूसकी तरफ राज्यों के कई अधिकारों को केंद्र के अधिकार क्षेत्र में डाल दिया गया। इस संशोधन के बाद विधायिका द्वारा किए गए ‘संविधान-संशोधनों’ को किसी भी आधार पर अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। साथ ही सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। जो राहुल गांधी आज संविधान को लेकर तीखे तेवर दिखा रहे हैं, उन्हें शायद यह भी पता होगा कि इंदिरा जी ने जो किया, उसके चलते आपातकाल में हुए संविधान संशोधनों के चलते इसे ‘कॉंस्टीटूशन आॅफ इंडिया’ की जगह ‘ ‘कॉंस्टीटूशन आॅफ इंदिरा’ कहा जाने लगा था।

यह क्रम रुका नहीं। राहुल के दिवंगत पिता राजीव गांधी ने भी प्रधानमंत्री रहते हुए संविधान संशोधन के माध्यम से देश की सबसे बड़ी अदालत के अहम निर्णय को अंगूठा दिखा दिया था। शाहबानों प्रकरण को लेकर तुष्टिकरण की सियासत की इस सियासत के चलते कांग्रेस ने देश की मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक की आग में और झुलसते रहने के लिए मजबूर कर दिया था। और फिर खुद राहुल कहां पीछे रहे? हरेक संस्था में घोषित या अघोषित रूप से एक आतंरिक संविधान की अवधारणा स्थापित की जाती है। कांग्रेस भी इसका अपवाद नहीं है लेकिन राहुल तथा उनकी माताजी सोनिया गांधी ने अपनी इस पार्टी में ऐसी किसी भी व्यवस्था का गला घोटने में कभी कोई कसर नहीं उठा रखी। सीताराम केसरी को पार्टी अध्यक्ष पद से जिस तरह जलील कर हटाया गया, उसने कांग्रेस में न सिर्फ वंशवाद की विष-बेल को रसद-खाद प्रदान की, बल्कि इससे यह भी हुआ कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को किसी शोकतंत्र में बदल दिया गया। आज राहुल की कांग्रेस में रायशुमारी नहीं, केवल चाटुकारी के लिए निरापद वातावरण बचा है। असहमति के स्वरों के लिए तो खैर कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई है। आपातकाल के समय कांग्रेस की चाटूकार टोली ने नारा दिया था, ‘ इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।’ राहुल वाली कांग्रेस में आज चमचत्व की विशुध्द प्रतियोगिता का नारा भी यही है कि ‘गांधी-नेहरू इज कांग्रेस, एंड कांग्रेस इज गांधी-नेहरू। ‘

संविधान के विधि-विधान के विपरीत कांग्रेस के कारनामों का लंबा इतिहास है। राहुल की सोचने-समझने की वास्तविक क्षमता को देखते हुए कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उन्हें इस बारे में लगभग कोई भी जानकारी न हो। और यदि वे इस सबसे परिचित हैं, तब भी यह बेशक कहा जा सकता है कि वे अपने परिवार के प्रिय पात्र सैम पित्रोदा की तरह ही ‘ जो हुआ, सो हुआ’ वाली थ्योरी में ही यकीन कर रहे हों। आखिर वह पार्टी के मुख्य नायक जो ठहरे। अब नायक ही कॉमेडियन का काम भी करने लगे, तो कोई क्या कर सकता है? अफसोस तो कांग्रेस के उन अंतिम पंक्ति वाले मसखरों पर हो रहा है, जो राहुल की इस अदा और अदाकारी के चलते ‘बेरोजगार’ हो गए हैं। यह तबका निश्चित ही मन मसोस कर यह देख रहा होगा कि जिस मनोदशा ने उन्हें कभी भी पार्टी की अग्रिम पंक्ति में आने नहीं दिया, उसी दशा के साथ राहुल ने पार्टी के शीर्ष पर बने रहने की दिशा में अपने लिए पुख्ता बंदोबस्त कर लिया है। भले ही इस सबके चलते कांग्रेस पार्टी ‘राहु की महादशा’ झेलने के लिए अभिशप्त क्यों न कर दी गई हो।

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