लंबे समय बाद यह लगा है कि कांग्रेस ने अपने पंजे का इस्तेमाल दिमाग को टटोलने के लिए भी किया है। मध्यप्रदेश में जिस तरह एक झटके में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे क्षत्रपों को किनारे कर दिया गया, वह बताता है राहुल गांधी के अप्रत्यक्ष और मल्लिकार्जुन खड़गे के प्रत्यक्ष नेतृत्व ने अपने घोर विरोधी दल भाजपा से कुछ सीखने की दिशा में बड़ा कदम आगे बढ़ाया है। पार्टी की राज्य इकाई के नए अध्यक्ष जीतू पटवारी, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार और इसी सदन में उप नेता प्रतिपक्ष के रूप में हेमंत कटारे का चयन दिखा रहा है कि राज्य के हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस ने ‘बीमार की बजाय बीमारी का इलाज’ करने वाली समझदारी का सहारा लिया है।
यकीनन पटवारी के विरोध में यह बात जाती है कि वह विधानसभा का चुनाव हार गए हैं। नब्बे के दशक में भाजपा ने ऐसी ही पराजय के बावजूद अपने प्रदेश नेतृत्व के तौर पर विक्रम वर्मा और बाद में कैलाश जोशी पर यकीन जताया था। यह दोनों नेता 1998 के विधानसभा चुनाव में पराजित हुए थे। ऐसा इसलिए कि पार्टी को इन दोनों की नेतृत्व क्षमता पर भरोसा था।
कांग्रेस में लंबे समय से निर्णयों के मामले में जड़ता की स्थिति के चलते पटवारी, सिंघार और कटारे की संगठन के लिए ताकत का अधिक परिचय नहीं मिल सका है, लेकिन यह तय है कि पार्टी की राज्य इकाई में अब नई हवा का संचार होगा और उन कार्यकर्ताओं के लिए यह आशा भरा माहौल होगा, जो परिवारवाद से लेकर पट्ठावाद तक के चरम से परेशान होकर आकंठ निराशा में डूब चुके थे। यह हालात राज्य में बरसों से बने हुए थे और किसी से भी छिपे नहीं थे। इसके बाद भी आलाकमान के रूप में सामने आए लगभग सभी चेहरों ने न जाने क्यों इनसे मुंह मोड़े रखा। इस उदासीनता की स्थिति यह रही कि पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी के भोपाल में आयोजित सम्मेलन में सोनिया गांधी ने सार्वजनिक रूप से केवल इतना कहा था, ‘मुझे मालूम है कि आप लोग कभी-कभी मिलकर काम नहीं करते हैं।’ जबकि हालात का सच ‘कभी-कभी’ की बजाय ‘कभी-भी’ वाली दुर्दशा वाला था। शायद पार्टी ने इंदिरा जी के समय वाली उस नीति पर ही विश्वास रखा, जिसमें राज्यों के स्तर पर पार्टी संगठन में कोई एक दमदार नेता को उभरने का मौका देने की बजाय गुटों के जरिए आपसी संघर्ष की स्थिति को कायम रखा जाए। सूबों को लेकर नेतृत्व के इन मंसूबों का अंततः क्या हश्र हुआ, वह आज इस बात से समझा जा सकता है कि कांग्रेस देश के हिंदी भाषी क्षेत्रों में केवल एक राज्य में ही सत्ता में बच सकी है।
बहरहाल, जीतू, उमंग और हेमंत भी यकीनन राहुल गांधी के खास लोगों में से हैं। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि पार्टी ने गुटबाजी से छुटकारा पाने की भी कोशिश की है, लेकिन एक शुरुआत तो ऐसी हो ही गयी है, जो यदि अपने स्वरूप में निरंतर सुधार करेगी तो फिर कांग्रेस के बीते हुए दिन वापस लौटने की उम्मीद बंधना अस्वाभाविक नहीं है। खासतौर से पटवारी पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी राज्य के नेताओं और कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलने की है। वह इसमें कैसे और कितने सफल होंगे, यह वक्त ही बताएगा। फिलहाल उनसे यह उम्मीद अनाचार का प्रतीक ही होगी कि वह लोकसभा चुनाव तक पार्टी में नए प्राण का संचार कर सकें। क्योंकि उस समर के लिए समय बहुत कम है और राज्य में कांग्रेस जिस तरह निराशा में डूबी हुई है, उससे उबरने में लंबा अरसा लगना तय है। अभी तो पटवारी, सिंघार और कटारे को उनके कार्यकाल के लिए शुभकामनाएं। बरसों बरस बाद पंजे ने दिमाग को टटोला है। कांग्रेस के सच्चे शुभचिंतक यही चाहेंगे कि यह क्रम बना रहे। बाकी उनके भीतर यह आशंका कायम रहना भी स्वाभाविक है कि पंजा एक बार फिर दिमाग से फिसलकर दिल की तरह न चला जाए। क्योंकि पार्टी की रीति-नीति इस समय जिनके रहमोकरम पर है, उनके निर्णयों के किसी भी समय गुरुत्वाकर्षण का शिकार होने की संभावना से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है।